
इस बार सृजक-सृजन-समीक्षा विशेषांक में प्रस्तुत है हेमंत दुबे रायगढ़ (छ. ग.) का परिचय, आत्मकथ्य एवं रचनाएँ। आप सभी की प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा रहेगी।
प्रस्तुतकर्ता
अन्तरा-शब्दशक्ति
परिचय
नाम -हेमंत दुबे
जन्मतिथि व स्थान – १३/०६/१९९४ , जोगीतराई, रायगढ़ (छत्तीसगढ़)
शिक्षा – स्नातक (विद्युत अभियांत्रिकी)
ईमेल – hemantdubey376@gmail.com
फोन/मो. 8889976558 ,9691033022
संपर्क – विरडी कालोनी, कोटा रायपुर(४९२००१)
८८८९९७६५५८
आत्मकथ्य
मेरा नाम हेमंत दुबे है मेरा जन्म १३ जून १९९४ को रायगढ़, छत्तीसगढ़ के एक छोटे से गाँव जोगीतराई में एक अत्यन्त साधारण परिवार में हुआ। पिता का नाम गुरु प्रसाद दुबे और माता सुनीता दुबे है। मेरे दो बड़े भाई, तुषार दुबे और पंकज दुबे भी हैं।
शुरुवात से ही आर्थिक स्थिति सही नहीं होने के कारण घर में तनाव का माहौल तो था उसके बावजूद पिताजी ने पूरी कोशिश की कि कोई कमी न रहे।
मेरी प्रारंभिक शिक्षा वहीं रायगढ़ में ही घर से हुई पढ़ने लिखने में मेरा रुझान शुरू से ही था मुझे मेट्रिक में मेरिट सर्टिफिकेट से सम्मानित किया गया। पढाई के आलावा मेरी रूचि चित्रकला में भी रही है, जबकि मैंने अपनी पहली कविता १५ साल की उम्र में लिखी थी और फिर ये मेरी ज़िन्दगी का हिस्सा बन गया।
आगे मै २०१३ में स्नातक के लिए घर से बाहर रायपुर में रहने लगा जहाँ शुरू के २ साल मैं अपने लेखन कार्यों से दूर रहा, पर अब मैं पुनः अपने मन के विचारो को शब्दो का रूप देकर कागज़ पे उकेरने लगा हूँ और अब मैं और साहित्य जीवन भर साथ ही रहेंगे।।
रचनाएँ
१. चलता चला गया
एक डर था मेरे सीने में, पलता चला गया
मैं शाम था आया जो तू, ढलता चला गया
वो शांत निगाहों से, मैं अशांत सा खड़ा
था रात अँधेरा तो मै जलता चला गया ll
मैं था नहीं ऐसा मगर, सहता चला गया
पत्थर सा था अंदर जो, पिघलता चला गया
क्या हुआ था क्या नहीं, इस सोच में था गुम
हालात बुरे थे, बुरा बनता चला गया ll
था रेत सा, लहरों में बिखरता चला गया
मैं दुनिया के मुट्ठी से, फिसलता चला गया
मुस्किले बड़ी खड़ी थी, मै भी तो खड़ा रहा
गिरता भी था मै तो, सम्हलता चला गया ll
थी रात कट रही तो मैं, कटता चला गया
भीड़ थी तो सब में मैं ,बटता चला गया
इस वक़्त का सफर था, मुसाफिर बना रहा
था वक़्त चल रहा तो मै, चलता चला गया ll
वो खामोसी से भी था कुछ, कहता चला गया
था वक़्त का दारिया तो मै, बहता चला गया
हो गया था अजनबी, अपनों के शहर में
घर से था अपने मैं, निकलता चला गया ll
२. न छटी तारो की गर्दिश
न छटी तारो की गर्दिश, न चाँद निकला
देख मुझे जीता, कातिल हैरान निकला
दूर था एक घर कोई, या मेरी मंज़िल थी
पंहुचा तो देखा, टूटा मकान निकला
कच्चे घर को रोंद के, पक्का जो किया
छोड़ के आसियाना, दिल से मेहमान निकला
दुआ की थी सबने तो, कसर क्या रही होगी
महफ़िल का हर शख्स, हर कोई बेईमान निकला
ढूंढ लूंगा वजूद अपना, कुछ बाकी जो हो
ज़मीन से नाउम्मीद, ढूँढने आसमान निकला
सबका हिसाब कर देता पर, उसमें भी नाकाम
सबका अपना अपना, मुझपर अहसान निकला
कौन गया मुझे इस कदर जख्मी करके
पराया तीर था, अपना कमान निकला
सब को जाता देख, सांस पे भी शक किया
तड़प रहा था अंदर जो, सीने से जान निकला
मेरी सभी ख्वाहिशें, मेरे साथ चली जायेगी
जिस्म से रूह निकला, दिल से अरमान निकला
खो गया है खुद को ही, समेटते जो ‘हेमंत’
मर चूका था अंदर से, ढूँढने शमशान निकला
३. मैं क्या सोचता हूँ
रातों को खुद ही, जो तुम जाग जाते
तो तुम जान जाते मैं क्या सोचता हूँ
कभी पास बैठे, कभी चलते जाते
तो तुम जान जाते, मैं क्या सोचता हूँ
गलत हूँ जो तेरी, नज़र में अभी भी
अभी भी अधूरा हूँ, तनहा अभी भी
मेरा ग़म अगर तुम, कभी अपनाते
तो तुम जान जाते, मैं क्या सोचता हूँ
ये कैसी थी उलझन, ये कैसी खलिश थी
हमे तो थी फुर्सत, तुम्हें ना कभी थी
घड़ी दो घड़ी, जो तुम बैठ पाते
तो तुम जान जाते, मैं क्या सोचता हूँ
तू सोया तभी तो, मुझे नींद आती
जो रोया मेरी भी, आँखें भीग जाती
जो आगे तुम्हारे, मेरी जान जाती
तो तुम जान जाते, मैं क्या सोचता हूँ
हूँ थोड़ा सा पागल, मगर ये क्या कम है
जो मैंने है चाहा, उसे नापसंद है
मेरी धड़कनों को, सुन तुम जो पाते
तो तुम जान जाते, मैं क्या सोचता हूँ
तू मुझमें बसा है, क्या तुझे भी मैं हूँ
तेरी दिल की धड़कन, निगाहें भी मैं हूँ
मुझे याद करते, मुझे प्यार करते
तो तुम जान जाते, मैं क्या सोचता हूँ ll
४. ‘आग’ कौन देगा
इंसान ना हो तो इंसानियत को, दाग कौन देगा
दुनिया में आखिर दम तक, तेरा साथ कौन देगा
नज़रें तो यहाँ सदियों से लड़खड़ाती ही रहीं हैं
भरोसा है जिन होठों को, शराब कौन देगा
जीने को तो सब जीते है, मैं भी जीता हूँ
पर जीते जी इस हार को,जीत का ख़िताब कौन देगा
कांटे बाँटना तो लोगों की फितरत ही रही है हमेशा
फूल बांटे वो ‘माली’, वो बाग़ कौन देगा
उजड़ा घर है, सन्नाटा छाया है जहां पर
तू नहीं तो उस घर को, चराग कौन देगा
अभी तो मैं ज़िंदा हूँ, तेरे मदद के वास्ते ‘हेमंत’
पर बाद मेरे, तेरी चिता को ‘आग’ कौन देगा
५. जिन्दगी मजाक करती है
मेरे हर कदम पर, फैसला अपने आप करती है
हसरतें मैं करता हूँ, ज़िन्दगी नाकाम करती है
करने नहीं देती, मुझे अपने मन की कभी
आगाज़ मैं करता हूँ, ज़िन्दगी तमाम करती है
ज़िन्दगी चलती ही रही, मैं पिघलता रहा
जलता तो मैं हूँ, ज़िन्दगी गुमान करती है
आ कभी इस बाजार में, कीमत बता अपनी
बोली मैं लगाता हूँ, जिन्दगी नीलाम करती है
किसको सुनाऊ दास्ताँ, इन दिनो परेशान हूँ
चुप मैं रहता हूँ, ज़िन्दगी बयान करती है
मौका है तु उड़ जा इस जिन्दगी के चंगुल से
आजाद मैं करता हुँ, जिन्दगी गुलाम करती है
सीख ले हँसना गम ए जिन्दगी में ‘हेमंत’, क्योकि
हँसता मैं हूँ, जिन्दगी मजाक करती है l
६. मुक्तक
अमर सुभाष चंद्र बोस
आग था सीने कहीं, पलता चला गया
जिसके आते देश, बदलता चला गया l
सुभाष था वो, आज भी सुभाष है अमर
क्रान्ती के ज्वाला से, जलता चला गया ll
ना रास ग़ुलामी थी, कहता चला गया
था देश जो अब तलक, सहता चला गया l
दो तुम मुझे लहू, आज़ादी के बदले
अब नहीं बहेगा जो, बहता चला गया ll
निःस्वार्थ, हिन्द पे वो मरता चला गया
शासनें-अंग्रेज भी, डरता चला गया l
नेताजी,बलिदान को, अनंत नमन है
नाम खुद का देश को, करता चला गया ll
आज़ादी मंज़िल थी, वो रस्ता चला गया
जेल, नज़रबन्द भी जो, हसता चला गया l
राज न सुलझ सका है, जिसके जाने का
वो शेर-ए-हिन्द फ़ौज, फरिस्ता चला गया ll
७. दूसरा राजा- ‘काँटा’
पुष्प को यह जग खोज रहा, पुष्प ही होते सरीख
पुष्प ही लोक में पूजे जाते, पुष्प ही मांगे भीख
किन्तु वे मुरझा कर क्षण में, पैरों तले कुचला जायेंगे
पूछो उन नर-नारी से क्या, सुखी कली उनको भायेंगे
ढूंढ रहे हम उन काँटों को, शक्ति का जो प्रतीक है
आगे आगे फूल मिले, पाँव रखें वहाँ जीत है
फेर के इस जग में फूलों को, एक दिन मात खानी है
इनके चेहरा खिला वही, निचे जिसके पानी है
लेकिन काँटो की बातें, इनसे पूर्ण निराली है
पानी की हो कमी जहाँ, पर काँटे बलशाली हैं
काँटे जायेंगे सदियों तक, क्या हुआ गर खाली है
रंग बिरंगे फूल तो क्या, पीछे उनके मालि है
छींन गए सब पात तरु से,गिर पड़े फूल भी मुरझाकर
काँप रही टहनी भी थर-थर,ललकारा जब पतझड़ आकर
ग्रीष्म के गर्मी के गम में, ऊपर से ऊपर था दिनकर
सूखे फूल कलियाँ सुखी, रहते थे शोभा जो बनकर
हिले न पर काँटे घर से, उजड़ा न उनका घर बार
ग्रीष्म भी आकर चला गया, बंद की पतझड़ ने हुंकार
सुन्दर पौधे द्वार-द्वार पर, कांटे क्यों सताती हैं
घिर कर काँटा हर दम हर पल,रक्षक बनके बताती है
काँटे अमर अजीत बनकर,अटल रहना सिखलाती हैं
फेर प्रतीक हैं फूल तो क्या, फूल तो आती जाती है
किसने की ये कारीगरी, किसने वृक्ष को है बाँटा
पहला राजा जड़ हो अगर, दूसरा राजा है काँटा
हेमंत दुबे रायगढ़ (छ. ग.)