
इस बार सृजक-सृजन-समीक्षा विशेषांक में प्रस्तुत है कृति गुप्ता,प्रयागराज (उ.प्र.) का परिचय, आत्मकथ्य एवं रचनाएँ। आप सभी की प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा रहेगी।
प्रस्तुतकर्ता
अन्तरा-शब्दशक्ति
परिचय
नाम- कृति गुप्ता
जन्मतिथि- 29.10.1986
स्थान- संगम नगरी इलाहाबाद (प्रयाग), उत्तर प्रदेश
शिक्षा- एम.एस.सी ( बायोइंफॉर्मेटिक्स ) काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी
बी.एस.सी (बायोटेक्नोलॉजी) इलाहाबाद कृषि विश्वविद्यालय , नैनी- इलाहाबाद
कार्य- कृषि एवं किसान विकास मंत्रालय की स्वायत्त संस्था – भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान में सहायक के पद पर कार्यरत |
प्रकाशन –
अंतरा शब्दशक्ति प्रकाशन द्वारा एकल काव्य संग्रह ” मामूली से जज़्बात”
अंतरा शब्दशक्ति की मासिक पत्रिका में रचना प्रकाशित
लोकजंग पत्रिका में तीन रचनाएं प्रकाशित,
अमर उजाला में दो रचनाएं प्रकाशित |
सम्मान – स्नातक व् परास्नातक दोनों ही में विश्वविद्यालय द्वारा स्वर्ण पदक से सम्मानित
अंतरा शब्शक्ति सम्मान
ईमेल- kritiguptablog@gmail.com
फ़ोन/मो.- 9818991159
संपर्क- 499- टाइप- III क्वार्टर्स, कृषि कुञ्ज, इंद्रपुरी, नयी दिल्ली -110012
आत्मकथ्य
नमस्कार ! मेरा नाम कृति गुप्ता है और मैं वर्तमान में नई दिल्ली स्थित कृषि एवं किसान विकास मंत्रालय की स्वायत्त संस्था – भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान में सहायक के पद पर कार्यरत हूँ। मेरे पिताजी उत्तर मध्य रेल से सेवानिवृत्त हैं और माता जी प्रयागराज के एक इंटर कॉलेज में प्रधानाचार्या के पद पर कार्यरत हैं। अपने माता पिता की तीन पुत्रियों में, मैं सबसे बड़ी हूँ।
एक मध्यम वर्गीय परिवार की अंतर्मुखी लड़की होने के कारण अपने मन के भावों को हमेशा डायरी में लिखते लिखते कब ये मेरा शौक बन गया पता ही नहीं चला। पहली रचना मैंने कॉलेज के दिनों में लिखी थी।
मैं शुरू से ही मेधावी छात्रा रही, कई पुरस्कार और पदक भी प्राप्त किये पर स्वभाव संकोची होने के कारण अपनी रचनाएं किसी से साझा करने का साहस नहीं होता था। सोशल मीडिया पर आने के बाद यूं ही एक दिन अपनी एक कविता पोस्ट करदी और मित्रों से सकारात्मक प्रतिक्रिया पाकर आत्मविश्वास थोड़ा बढ़ गया। रचनाएं लिख कर पोस्ट करने का सिलसिला बढ़ा और इसी कारण मेरे परिवार को भी इस राज़ का पता चल गया। मैंने सबसे ज़्यादा रचनाएं और मन के भाव तब लिखे जब मैं अपने पुत्र के जन्म पर प्रसूति अवकाश पर थी। व्हाट्सप्प और फेसबुक के ज़रिये मेरी कुछ कविताएं मेरी बड़ी मौसी जी ने पढ़ीं और मुझे अंतरा परिवार से अवगत कराया।
मुझे विधाओं का , हिंदी व्याकरण के गूढ़ नियमों का बिलकुल ज्ञान नहीं है और मेरी रचनाओं में शायद ये ज़ाहिर भी हो जाता है। अंतरा के सभी गुणी रचनाकार मेरे गुरु समान हैं जिनसे नई नई विधाएँ सीखने को मिलती हैं। आशा है आप सब मेरी रचनाओं की समीक्षा कर मेरी साहित्य यात्रा को एक सुदृढ़ दिशा देने की कृपा करेंगे। 🙏🏼
रचनाएं
1. ममता का बंटवारा
हां,
शाश्वत है मां की ममता
परम है मातृत्व की सत्ता
जीवन बीज के अंकुरण से
उसके फलदार वृक्ष बनने तक
मां की ममता ही है वास्तविकता!
पर,
बहुत तेज़ी से बदल रहा है परिवेश
मातृत्व पिता में भी कर रहा है प्रवेश
क्यों ममता को मां शब्द से बांधना
जब जीवन माता पिता की
भावनाओं का ही है समावेश..
मैंने देखा है,
अपने पिता को मां की ही तरह
घर संजोते, हमारी ज़रूरतें संवारते
कई बार बेटियों के लिए आंसू बहाते
और पति को भी देखा है अनेकों बार
बेटे को रात रात भर लोरी सुनाते
देखा है दोनों का ही दिल
गहरी ममता से भरते और कई बार
मां का धर्म मुझसे भी बेहतर निभाते
क्यों
बांट दिया हमने
भावनाओं को भी लिंगों में
पुरुषत्व से भर दिया पितृत्व को
और ममता सीमित मां के आंचल में?
जब एक ही गाड़ी के है दोनों पहिए
जीवन महकता दोनों के साए में
फिर सोचो क्यों बांट दिया
ममता को भी दो भागों में??
2. खुद से माफ़ी
आज चाहती हूँ खुद को माफ़ करना
दूसरों से पहले .. सबसे पहले …
कि आसान नहीं है जीना इस अपराधबोध में,
आसान नहीं है छोड़ कर आना तुम्हें
बिलखते हुए, दूसरों की गोद में…
खुद से जुदा करना तुम्हें जबरन
जब तुम मेरा आँचल भींचे मचाते हो कोलाहल ..
चाहती हूँ खुद को माफ़ करना
कि अब आसान नहीं है बार- बार
इस गुनाह की आग में जलना
और हर रोज़ अपने फैसले तौलना
दुखता है दिल दुनिया देती है जब ताने
देखो! माँ चली बेटा छोड़, चंद रुपये कमाने…
खुद को माफ़ करना इसलिए भी है ज़रूरी
कि अब और नहीं जल सकती इस आग में
ना जला सकती हूँ तुम्हारा बचपन
जाती नहीं सिर्फ कागज़ के टुकड़े कमाने
कमाने जाती हूँ कुछ तुम्हारा भविष्य और
कमा के लाती हूँ कुछ पल स्वाभिमान के भी…
चलो, अब आज माँगूं माफ़ी खुद से
और बुझा दूँ मन की आग
दे सकूं तुम्हें अपना सर्वोत्तम
कि भला सूखा कुआं भी कहाँ
बुझा पाया है कभी किसी की प्यास !
3. किसान दिवस
आज फिर बच्चे भूखे पेट सोए हैं उसके
आज फिर जैसे-तैसे उन्हें बहलाया है
आज फिर खेत में सींच कर खून अपना
दिल में उम्मीद का दिया जलाया है
आज फिर सेठ के पैरों में उसने
गिर कर, कर्ज उठाया है
आज फिर उसके ज़हन में
आत्महत्या का ख़्याल आया है
आज फिर किसान दिवस पर
नेताजी ने बढ़िया भाषण सुनाया है
आज फिर किसान के हिस्से की
रोटी पर घी मल मल खाया है
आज फिर नेताजी ने दावत का
बचा खाना बाहर फिकवाया है
आज फिर उस अभागिन मां ने
जूठन से अपना घर चलाया है!
4. ये गलतफहमियां
क्या हर बात कह देना जरूरी है?
क्या हर बात का सच होना जरूरी है?
क्यों नहीं भाती कभी भ्रम की दुनिया?
क्यों चुभती हैं तुम्हें ये गलतफहमियां?
क्या सच के कड़वे घूंट पिलाना जरूरी है?
क्या सच्चाई का आईना दिखाना जरूरी है?
क्या हासिल हुआ कुछ उम्मीदें तोड़ कर?
क्या रोशनी हुई मन का दिया बुझा कर?
क्या सच के नाम पर कर्कश होना जरूरी है?
क्या सबको सुधारना जरूरी है?
क्या मिथ्याबोध से निकल सके तुम?
क्या खुद के भ्रमजाल को तोड़ सके तुम?
क्या है जवाब इन क्या और क्यों का?
क्या नहीं मुनासिब जलना उम्मीद की लौ का?
सब मुमकिन है यहां, ये है भ्रम की दुनिया!
क्यों नहीं पालते तुम भी ये गलतफहमियां?
5. हलधर का हल
अपने लहू पसीने को जो अन्न बना दे
बंजर धरती से भी जो सोना उगा दे
जिसके होने से जीवन को शक्ति है मिलती
कोई तो उस किसान की भी हालत बदल दे
वो अपने हक़ की लड़ाई लड़ने से है डरता
जब जब सूखी हुई फसल को है देखता
ना पाता जब अपनी समस्या का कोई हल
तभी तो वो असहाय आत्महत्या है करता
किसी को न दिखा अन्नदाता का रोता चेहरा
आज बन के रह गया बस राजनीति का मोहरा
हो तपती दोपहरी या कमर तक का पानी
सहता वो बारिश और सूखे का घात दोहरा
डूब गया वो कर में, क्या ब्याज क्या असल
भर पेट सबका वो, हुआ अपनी ज़मीं से बेदखल
ना प्रकृति साथ देती, ना रकम सही मिलती
अब तो कोई निकाले हलधर का भी हल!
6. सच्चा हमसफ़र
ये जो संसार है ना,
जो है पुरुष प्रधान
जहां की रीत है
वंश की सौगात
बेटों को सौंपना…
जहां लोग दिखावा तो
करते हैं खुश होने का
लड़की जन्मे तो
पर नसीहत भी देते हैं
एक बार फिर करो कोशिश…
कोशिश बेटा जन्मने की!
इसी दुनिया में हैं
वो दोहरे चरित्र भी,
जो आधुनिक हैं इसलिए
बहू कामकाजी लाते हैं..
पर खाना, कपड़ा, बर्तन,बच्चे
बहू की एकल थाती बताते हैं!
इसी दुनिया में हैं
वो भयाक्रांत,मद में चूर लोग
जिन्हें डर है कि स्त्री उनसे
आगे ना निकले,ज़्यादा ना कमाए
डर है कि कहीं वो अपने
पंख फैला उड़ ना जाए!
ऐसी संवेदनहीन दुनिया में
पले बढ़े हो तुम भी…
पर तुमने झुठलाई
ये रीत जगत की!
हर बार आए आगे और
थामा हाथ कभी, दिया कंधा भी
मेरी सारी जिम्मेदारियां
अपने सिर माथे लगाईं
फिर वो हो बर्तन, कपड़ा या
बच्चे की दवाई…
लीक से हटकर जो सोच
तुम लेकर चल रहे हो साथ मेरे
महसूस करो ज़रा इस ज़माने की
जलन,असमंजस और कौतूहल !
मैं गर्व से भर सी जाती हूं
जब तुम्हें दुनिया से अल्हदा पाती हूं।
बस! अब नहीं लगाना चाहती
अपनी ही किस्मत को नज़र…
तुम अपनी सोच को बो देना
अपनी आने वाली पुश्तों में
कि वो भी तो जानें
कैसे बनते हैं सच्चा हमसफ़र!!
7. मामूली से जज़्बात
हाँ, मैं थी एक मामूली सी लड़की,
रंग-रूप मामूली,और जज़्बात..
वो भी वही रोज़मर्रा के..
पढ़ना, लिखना, सोना, खाना
आदतें भी सब मामूली
सोच… हाँ सोच कुछ बड़ी थी
दुनिया से अल्हदा
लेकिन सोच ज़ाहिर करने
का हौसला नहीं था..
सो,ख्वाब भी हो चले मामूली!
पर, मन तो मन था
वो जो सोच थी न…
कुछ बड़ी -सी ,अलहदा सी
उसने कचोटा, हिलाया
और मजबूर किया कि
इस मामूली सी ज़िन्दगी के
मामूली से पलों को
स्याही में डुबो कर
करती जो हो कैद डायरी में ..
चलो, इन्हें सबको दिखाएं!!
आम से अपने ख्वाबों को करलें ख़ास
और अपनी ज़िन्दगी
की झलक सबको दिखाएं!!
दिखाएं सबको कि मज़ा ही कुछ और है
लिखने में कुछ ऐसा जो नहीं है ख़ास
लिखना एक शाम के बारे में,
जो अचानक बस यूँ ही शुरू हो गई..
या लिख देना यूँ ही कुछ उन दोस्तों के बारे में
जो एक चाय की प्याली में भी
निकाल सकते हैं ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा!
कितना मज़ा है इन मामूली से
जज़्बातों को दिल से निकाल कर
कागज़ पर शक्ल देने में..
कि यह नहीं चाहते साहित्य के
भारी शब्दकोष को टटोलना
और पहनना भाषा के अलंकारों को
ये तो बस बुन लेते हैं यूं ही
छोटे छोटे पलों की माला..
और सुनाने बैठ जाते हैं कहानी
हर रोज़…
कभी एकतरफा प्यार की,
कभी सात जन्म के साथी की,
कभी किचन में लगे बर्तनों के ढेर की
तो कभी शून्य में खुद को खोजने की …
देखो ना, भला कहां हैं अनोखे
ये कोई भी जज़्बात..
मामूली से तो हैं…
जैसे तुम्हारे हैं,और उसके..और उसके भी
पर… मज़ा अलग है
इस मामूली से मन की
कहानी सुनाने में..
क्यूंकि यह कहानी नहीं बनेगी
किसी पाठ्यक्रम का हिस्सा,
ना ही निभाएगी कोई भूमिका
मुझे अमर बनाने में…
और ना ही इनपे दे सकेगा पुरस्कार
कोई साहित्य का शिरोमणि…
पर ये मामूली से जज़्बातों
से लिखी गई मामूली सी कहानियां
दे जाएंगी मुझे मेरे होने का अहसास
करवाएंगी रूबरू मुझे मेरे ही अक्स से..
इन से पा लूंगी मैं जवाब सारे
मैं कौन हूं, क्या हूं, क्यों हूं
और यही बना जाएंगी मुझे
मामूली से ख़ास!!