
इस सप्ताह सृजक सृजन समीक्षा विशेषांक में प्रस्तुत है *साधना छिरोल्या, दमोह (म.प्र.) का परिचय, आत्मकथ्य एवं रचनाएँ। आप सभी की प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा रहेगी।
प्रस्तुतकर्ता
अन्तरा शब्दशक्ति
परिचय
नाम-साधना छिरोल्या
जन्मतिथि-17मार्च
1964
स्थान-जबलपुर(म.प्र.)
शिक्षा-बी.एस. सी. बी.एड.(गणित)
प्रकाशन-गहोई सूर्य अख़बार जबलपुर(म.प्र.)
गहोई बंधु पत्रिका ( ग्वालियर म.प्र.)
गहोई संस्कार पत्रिका जबलपुर
लोकजंग भोपाल।
हिंदी काव्य संग्रह “वाह!जिंदगी”।
सम्मान-भाषण,नाटक,वादविवाद,तात्कालिक निबंध,कविता एवं सुलेख प्रतियोगिताओ में
पुरुस्कार।
गहोई समाज एवं हितकारिणी स्कूल जबलपुर द्वारा हिंदी काव्य लेखन के लिये सम्मानित किया गया।।
अंतरा शब्द शक्ति द्वारा
हिंदी कलमकार का सम्मान।
राजस्थान की कवि चौपाल दौसा शाखा द्वारा
कवि चौपाल शारदा सम्मान।
अंतरा शब्द शक्ति द्वारा कहानी प्रतियोगिता में पुरस्कार।।
अखिल भारतीय साहित्य परिषद् विराटनगर जयपुर द्वारा साहित्य पुरस्कार।।
ई मेल-Sadhnachhirolya123@gmail.com
फोन नं.-7089735135
संपर्क-यूनियन बैंक के सामने,राय चौराहा
दमोह(म.प्र.)
पिन-470661
आत्मकथ्य
मैं साधना छिरोल्या (बी. एस. सी. बी.एड .गणित)
रानी दमयंती की नगरी दमोह(म.प्र.) की वासी।
लेखन और स्वाध्याय मेरे जीवन का एक अहम् हिस्सा है।मेरी रूचि बचपन से ही पढ़ने में थी। हम सभी भाई- बहिनों की पढ़ने के साथ-साथ सभी सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भागीदारी होती थी।मैंने गद्य लेखन का कार्य माध्यमिक शाला स्तर पर ही आरम्भ कर दिया था।भाषण,नाटक,वादविवाद,तात्कालिक निबंध,और सुलिपि प्रतियोगिताओ में हिस्सा लेने के कारण गद्य में कुछ अलग रुझान था।बाद में सांसारिक दायित्वों के निर्वहन में जिंदगी के बीस वर्ष कब गुजर गये पता ही नहीं चला।और लेखनी को विराम सा लग गया।वर्तमान में, मैं समाजिक एवं परिवारिक कार्यक्रमों में मंच सञ्चालन करती हूँ।और यही एक मुख्य वजह थी मेरे गद्य लेखन के साथ-साथ काव्य लेखन की ओर अग्रसर होने की।मेरे लिये बहुत गौरवशाली क्षण थे ,जब मुझे जबलपुर के अपने ही हितकारिणी स्कूल द्वारा हिंदी काव्य लेखन के लिये सराहा और सम्मानित किया गया।मुंशी प्रेमचंद की लेखनी सदा से ही मेरी प्रेरणा रही है।मैं हमेशा एक सकारात्मक सोच के साथ जीती हूँ।मैं अपनी आत्मसंतुष्टि के लिये लेखन कार्य करती हूँ। हाँ मेरी ये पुरजोर कोशिश रहती है कि मैं जो भी लिखूं वह आम जनमानस के ह्रदय पटल तक सरलता से पहुँच सके।।
1.वाह!जिंदगी भाग-1
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कुछ अपनी कहिये,कुछ हमारी सुनते चलिये,
जिंदगी को सहजतम बनाते चलिये।।
जिंदगी तो है धूप- छाँव का मेला,
इसे मौसम की रुमानियत
समझकर चलते चलिये।।
बहारों के मौसम सदा रहते नहीं,
तो पतझड़ का भी आनंद
उठाते चलिये।।
न सूरज बन सके सबके लिये,
तो चाँद की शीतलता ही बनाये रखिये।।
समय का पहिया कब- कहाँ घूम जाये,
तो जो है सामने,उसका ही आनंद उठाते चलिये।।
न परेशां हो ऊँचे लोगों को देखकर,
कभी छोटों को भी देख,
शाँति बनाये रखिये।।
अकड़कर बोलने वाले,सदा सही होते नहीं,
तो झुकने वाले के भी दो बोल सुनते चलिये।।
न जाने कौन सी शाम आखिरी हो जाये,
तो सबसे हँसकर बोलते निकलते चलिये।।
जिंदगी को बोझ न समझ-ए-मुसाफिर,
जीता-जागता रंगमंच है ये,यही सोचकर चलते चलिये।
कुछ अपनी कहिये, कुछ हमारी सुनते चलिये,
जिंदगी को सहजतम बनाते चलिये।।
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2.न जाने कहाँ खो गये
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वो पीपल की छाँव,वो रस्सी के झूले,
वो गुड्डे की शादी,वो मामुलिया के गाने,
न जाने कहाँ खो गये।।
वो रेत के घर,वो सीप और पत्थर,
वो मंदिर की होली,वो टेसू के रंग,
न जाने कहाँ खो गये।।
वो कागज की नाव,वो वर्षा की बूँदें,
वो कागज के पैसे,वो मीना बाजार,
न जाने कहाँ खो गये।।
वो आँख मिचौली,वो छुपम-छुपाई,
वो गिल्ली, वो डंडा,
न जाने कहाँ खो गये।।
वो चंपा-चमेली,वो जूही और बेला,
वो रात की रानी,
न जाने कहाँ खो गये।।
वो बंदर-मदारी,वो रंगीन कठपुतली,
वो कुश्ती,वो दंगल,
न जाने कहाँ खो गये।।
वो शादी की गारी,वो होली की फागें,
वो आल्हा ,वो ऊदल,
न जाने कहाँ खो गये।।
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3.मेरी बिटिया
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इतनी खुशियाँ बरसे रिमझिम,
आँगन तेरा भर जाये,
चाँद-सितारे झूम के नाचे,
आँगन तेरा भर जाये।।
क्या चंपा, क्या जूही,बेला,
रात की रानी छा जाये,
गुलमोहर भी झूम के नाचे,
आँगन तेरा भर जाये।।
क्या टेसू,क्या पीली सरसों,
आम की बौरें छा जायें,
रंग,गुलाल की फुहार बरसे,
आँगन तेरा भर जाये।।
हम सब करते यही प्रार्थना,
ईश्वर की कृपा बनी रहे,
ऋद्धि-सिद्धि भी झूम के नाचे,
आँगन तेरा भर जाये।।
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4.फासले
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जाने कितने बाण कंधे पर,
और कमर में शमशीरें।
तीखे शब्दों के बाण चल रहे,
कलुषित मन की शमशीरें,
हर इंसा है घात लगाये,
कैसे दूजे को चीरें।।
मानवता को ताक पे रखके,
समझ न पाये किसी की पीरें,
जख़्मों पर है नमक छिड़ककर,
हाल वो पूछें धीरे-धीरे।।
नीयत हो गई इंसान की ऐसी,
अपने घर को खुद ही तोड़े,
घर का भेदी लंका ढाये,
यही कहावत हरदम जोड़े।।
रोज बनाये ऐसे फासले,
कभी न जो भरने पाये,
जिन्दा की तो बात ही छोड़ो,
मुर्दा को भी न छोड़े।।
जाने कितने बाण कंधे पर,
और कमर में शमशीरें।।
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5. हल
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सुरसा के मुँह सी ही होतीं,
रोज नई समस्यायें,
कैसे इनसे पार हैं पाये,
कोई तो ये बताये।।
हाथ-पैर नहीं होते इनके,
फिर भी संग है चलतीं,
सूझबूझ और कड़ी मशक्कत,
से ही ये हैं टलती।।
कभी बड़ी है,कभी हैं छोटी,
परछाईं सी है होती,
एक ख़तम तो दूजी उपजती,
खूब डराये रखती।।
बहुत हो गया डरना-डराना,
अब सामना करना सीखें,
कभी न होगा इनका खात्मा,
अब विचलित होना छोड़ें।।
हल होती है हर समस्या,
कोशिश करने से ही,
मैंने हरदम यही है सीखा,
“कोशिश करने वालों की
कभी हार नहीं होती है”।।
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6. अर्जी
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आज फिर अर्जी लगी,
कान्हा तेरे दरबार में।
नीच कर्मों से भी देखो,
नहीं है डरता आदमी,
पाप की गठरी है लादे,
हर कोई फिरता यहीं,
माँ-बहिन की आबरू फिर,
लुट रही बाजार में।।।
आज फिर—-
सजता है बाजार देखो,
स्वार्थ और फरेब का,
लोक और परलोक की,
चिंता किसी को है कहाँ,
बेचकर ईमान अपना,
घूमते बाजार में।।।
आज फिर———-
आदमी ही आदमी को,
रोज ही डँसते यहाँ,
भेड़िये की खाल ओढ़े,
हर कोई दिखता यहाँ,
बाजियाँ शतरंज की तो,
बिछतीं हैं बाजार में।।।।
आज फिर अर्जी लगी,
कान्हा तेरे दरबार में।।।
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7. कहानी
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यूँ हीं नहीं लिख जाती,
फिर कोई कहानी।।
बार-बार पढ़ना पड़ता है,
अतीत के पन्नों को,
और बार-बार पकड़ना पड़ता है
वर्तमान की परछाइयों को,
यादों के झरोखे,
बारी-बारी से बंद-खोले जाते हैं
तब कहीं रचती है एक नई कहानी।।
कभी गोते लगाना पड़ते है,
कल्पनाओं के समुन्दर में,
और कभी जूझना पड़ता है,
भविष्य कि आहटों से,
कभी डूबकर कभी उतराकर,
पार निकलना होता है,
तब कहीं रचती है,
एक नई कहानी।।
भूत, भविष्य,वर्तमान,
तीनों का संगम होता है,
हर शब्द-शब्द का जोड़ होता है,
इन सबका मिलन होता है,
तब कहीं रचती है एक नई कहानी।।
यूँ ही नहीं लिख जाती
फिर कोई कहानी।।।
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साधना छिरोल्या
दमोह(म.प्र.)
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