अन्तराशब्दशक्ति और मेरा अनुभव
एक दिन फ़ेसबुक के पन्ने पलटते डॉ प्रीति सुराना का एक आलेख पढ़ा,कि कैसे साझा संकलन पर व्यय की गयी राशि में निजी किताब प्रकाशित हो सकती है।मेरे लिये जानकारी निःसन्देह सुखद आश्चर्य पूर्ण थी ; क्योंकि मैं भी अनेक साझा संकलनों का हिस्सा बन चुकी थी।साझा संग्रहों का सबसे कमज़ोर पक्ष किताब किसी को न दे पाना होता है,और ख़रीदता कोई है नहीं।
मन ने कहा…वाह ! ये तो अनायास ही पारस हाथ लग गया।बस सोना बनने की आस जग गई।उस दिन मेरी खुली आँखों में एक सपना पल गया,अपनी किताब का।जिसपर सिर्फ़ मेरा नाम हो।प्रीति जी से फ़ोन पर विस्तृत जानकारी ले मैं जुट गई अपने सपने को मूर्त रूप देने में।
पाँच जनवरी दो हज़ार उन्नीस का दिन स्वर्णाभ बन गया।आख़िर मेरी पहचान मेरे हाथों में थी।अविस्मरणीय है वह क्षण…जब दिलीप वशिष्ठ जी ने मुझसे मेरी पहली किताब मेरे हस्ताक्षर के साथ ख़रीदी।कुछ अहसास सिर्फ़ जीने के लिये होते हैं शब्दातीत।
विशेषत: मुझसी गृहणियाँ जिनकी लेखनी पारिवारिक दायित्वों के कारण अस्तित्वहीन हो गयी थी,अब जीवन की अग्रिम पंक्ति में है।अंतरा ने गृहिणियों को उनका छोटा सा आकाश देकर उनके पंखों को उड़ने के लिये प्रेरित किया है,इसके लिये वह अशेष आभार संग बधाई की पात्र है ।
मातृभाषा हिन्दी के प्रति समर्पण तो अंतरा शब्द शक्ति का सुदृढ़ पक्ष है ही,इसके अतिरिक्त
न्यूनतम राशि में छोटी छोटी किताबें उपलब्ध कराने का जो महनीय कार्य वह कर रही है महती सराहनीय है।शुभकामनाओं के साथ …
……….वर्षा अग्रवाल