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मन का चतुर्मास प्यासा है,
पावस का घट रीत गया है।
बेसुध होकर बूँदें थिरकीं
हरियाली ने छेड़ा सरगम।
सीले सीले दिन अलसाये,
जागी सारी रातें पुरनम।
अमराई में आ कोयल ने,
गाया कोई गीत नया है।
पावस का घट……….।
लगा दिये अंबर ने कितने,
वसुधा पर सावन के मेले।
लेकिन यादों की पगडंडी
पर केवल हम निपट अकेले।
हार गया दर्पण का पारा,
बिंब तुम्हारा जीत गया है।
पावस का घट……….।
चंचल चपला है दीवानी,
मेघ मेघ को चूम रही है।
घट के घट मदिरा के पीकर,
पागल होकर झूम रही है।
इस मौसम में चैन चुरा कर,
क्यों निष्ठुर मनमीत गया है।
पावस का घट……….।
पत्थर की छाती पर चढ़कर,
हरी दूब लिख रही कथाएँ।
कौन भला बाँचेगा लेकिन,
अपनी पीड़ा और व्यथाएँ।
फला नहीं तप, और एक युग
लगता जैसे बीत गया है।
पावस का घट रीत गया है।
“सत्यप्रसन्न”
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