Page Visitors Count: 1151
वेबसाइट की लिंक https://antrashabdshakti.com/2021/02/27/कंचन-गुप्ता-खुशी-सृजक-सृज/ फेसबुक पेज की लिंक https://www.facebook.com/253741051744637/posts/1146849255767141/ फेसबुक समूह की लिंक https://www.facebook.com/groups/antraashabdshakti/permalink/3589564774425967/ आज *सृजक- सृजन विशेषांक* में मिलिये प्रयागराज की साहित्यकार *कंचन गुप्ता 'खुशी'* जी से। हमें आप सभी की समीक्षा की प्रतीक्षा रहेगी, अपनी प्रतिक्रिया कॉपी करके फेसबुक और वेबसाइट के लिंक पर भी जरुर डालें। सभी मित्रों से निवेदन है कि आज पटल पर इन रचनाओं की समीक्षा के अतिरिक्त कोई भी क्रिया-प्रतिक्रिया या पोस्ट न डालें। पटल के सभी नियमों का पालन अनिवार्य रुप से करें।🙏🏼 *निवेदक* संस्थापक *अन्तरा शब्दशक्ति संस्था एवं प्रकाशन* डॉ प्रीति समकित सुराना *परिचय* नाम- श्रीमती कंचन गुप्ता पति का नाम- श्री मनोज कुमार गुप्ता मां का नाम -श्रीमती संतोष गुप्ता पिता का नाम-श्री विनय कुमार गुप्ता विधि व्यवसाय मूल पता -प्रयागराज *आत्मकथ्य* साहित्य में रुचि स्वाभाविक है। कोई विशिष्ट कारण नहीं बता सकती हूँ I साहित्य में रूचि बचपन से है I मेरी माँ ने शादी के बाद जब हम बच्चे छोटे थे,हिन्दी साहित्य में एम० ए० किया तब उनसे सुन सुनकर साहित्य में रूचि जागी,जो आज तक जीवित है। पति प्रियतम को जब कुछ अपना लिखा सुनाती हूँ तो उनका किया गया उत्साहवर्द्धन और आगे लिखने को प्रेरित करता है । जिन्दगी में जो हूँ उन्ही की वजह से हूँ । पढ़ना पसंद है और साहित्य स्वयं अपनी ओर खींचता है ऐसा महसूस होता है । साहित्य मंच से जुड़ी हूँ , एक ही विषय पर रचनाकारों के भिन्न -भिन्न विचार सोचने की क्षमता को विस्तार देते हैं तब आत्मिक शांति प्राप्त होती है। *रचनाएँ* *1* याद आई तो मगर बस याद आकर रह गई उठता हुआ तूफ़ान सीने में दबाकर रह गई द्वारे बंदनवार बांधे घर को लीपा नेह से कामना की सेज पर बिस्तर लगाकर रह ग्ई साज सारे रख के बैठी सुर न लागा पर कोई आंसुओं की धार में कुछ गुनगुनाकर रह गई देर तक शब तकते तकते ओस की बूँदें गिनीं तड़प की जलती अंगींठी को बुझाकर रह गई दौड़कर जाऊं पकड़ लूँ आसमाँ की पतंग सारी न हौसले न क़दम आये कसमसाकर रह गई ॥ कंचन गुप्ता"ख़ुशी" प्रयागराज *2* ज़िन्दगी फलसफ़ों से भरी रह गई एक तेरी कमी थी कमी रह गई न क़दम उठ सके तेरे दर तक मेरे चैन पैरों में थी इक पड़ी रह गई जलवा है, या है सनम का जलाल आह भर के शहर की परी रह गई हमसे लिक्खा गया न वाक़या ए ज़फ़ा समसि उल्फ़त की स्याही से भरी रह गई समेट कर रख सके न कई मर्तबा मौसमों बिछी दिल की दरी रह गई हसरत में क़त्ल की पहुँचा सिरहाने तक हिम्मत फिर सारी की सारी धरी रह गई॥ कंचन गुप्ता"खुशी" प्रयागराज *3* खाली खाली रही घड़कनों की गली खाली खाली दिल का प्याला रहा रातो दिन हम जले आरज़ू में तेरी पर रकीबों के घर में उजाला रहा। क्या ख़ता है हमारी बताते कभी नग़मे सुर पे मेरे गुनगुनाते कभी छूके हौले से हाथो की उंगलिया चुपके कानों में ये तो बताते कभी उनके हाथों में हाथ तेरा है क्यू क्यूं मेरे में लकीरों का जाला रहा। तड़पती रहीं बिजलियाँ रात भर आवाज़ें झींगुरों की सताती रहीं आती जाती हवा कड़कड़ाती रही मेरे पैकर की गरमी भगाती रही हम कफ़स में ओढ़े रहे बदलियाँ उनके याँ चॉदनी का बोलबाला रहा। किस तरह खाली जज़बातो से निभे कोई मौसम हो जब तू चमन में दिखे हल्की हो मेरी पेशानी की सिलवटें कैसे कि दिल दीवाना खुशी से फटे आके देखो जरा हसरतों की लड़ी जिनमें हर जुस्तजू का हवाला रहा। खाली खाली रही घड़कनों की गली खाली खाली दिल का प्याला रहा रातो दिन हम जले आरज़ू में तेरी पर रकीबों के घर में उजाला रहा। कंचन गुप्ता"खुशी" प्रयागराज *4* जितना बंदिशों में ज़िन्दगी को रखते गये उतना टूट टूट कर रेत सा बिखरते गये सुखा सुखा के रखे थे जो अहसास जिल्द में पतझड़ के पेड़ की तरह हर रोज़ निखरते गये नींद न तो आनी थी और आई भी नहीं जुल्मी कोरा बिस्तर सिलवटों से करवटों भरते गये कितनी शिद्दत से तलाशी बारहा गलियाँ तेरी हर कदम के साथ आयत बार बार पढ़ते गये उल्फ़तों का दौर आया है तो हम भी डूब ले बस इसी ख़्वाहिश में डूबे तो पार उतरते गये कल क्या होगा ये फ़िक्र जाने कब की छोड़ दी तेरी खुशी को जो हुआ सोचे बिना करते गये कंचन गुप्ता"खुशी" प्रयागराज *5* उलझनों में रहे हम समझ न सके धूप आती २ही गुदगुदाती रही माँ का फोन था कैसी हो बेटी तुम बिज़ी थी ज़रा फाेन रख दिया याद आती रही दिल दुखाती रही हम समझ न सके धूप आती २ही . पा ने खुदरी हथेली सिर पर रखी जल्दबाजी करी चलता हूँ कह दिया आँखों की नमी कुछ बताती रही हम समझ न सके धूप आती २ही साल जो ये गया बहुत ख़ूब था क्या मृत्यु ख़ूब है इसका होना है क्या जिन्दगानी की कीमत बताती रही हम समझ न सके धूप आती २ही फिर से उतरूँगी फिर चढ़ आऊँगी घर की दीवारों को गर्म कर जाऊँगी फलसफ़ा आने जाने का समझाती २ही हम समझ न सके धूप आती २ही बालकनी में चढ़ी तुमने गद्दे २खे क्या कभी मेरी ख़ातिर दो पल को रुके क्या जाना कि मेरे सानिध्य को कुर्सी की कमर ललचाती रही हम समझ न सके धूप आती २ही जितनी धूप जिसके हिस्से है अहो! क्या पता आज है कल हो या न हो पहुँचने दो दिल के गर्भ तक जो ऊपर ही उतराती रही ॥ हम समझ न सके धूप आती रही। कंचन गुप्ता"खुशी" प्रयागराज
Total Page Visits: 1151 - Today Page Visits: 3