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आज सृजक- सृजन विशेषांक में मिलिये नागपुर की साहित्यकार रंजना श्रीवास्तव जी से। हमें आप सभी की समीक्षा की प्रतीक्षा रहेगी, अपनी प्रतिक्रिया कॉपी करके फेसबुक और वेबसाइट के लिंक पर भी जरुर डालें।
सभी मित्रों से निवेदन है कि आज पटल पर इन रचनाओं की समीक्षा के अतिरिक्त कोई भी क्रिया-प्रतिक्रिया या पोस्ट न डालें। पटल के सभी नियमों का पालन अनिवार्य रुप से करें।🙏🏼
निवेदक
संस्थापक
अन्तरा शब्दशक्ति संस्था एवं प्रकाशन
डॉ प्रीति समकित सुराना
परिचय
*नाम : श्रीमती रंजना श्रीवास्तव*
*जन्मतिथि* : 27 अक्टूबर
*जन्मस्थान* : प्रयागराज
*शिक्षा* : एम. ए., एल. टी. , बी. एड.
*भाषा ज्ञान* :
हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी, मराठी, उर्दू, और भोजपुरी
*कार्यक्षेत्र* :
भवन्स भगवानदास पुरोहित विद्या मन्दिर, नागपुर में संस्कृत विभागाध्यक्ष एवं प्राथमिक-विभाग प्रभारी के पद पर कार्यरत।
विदर्भ हिन्दी साहित्य सम्मेलन के "अंतरंग" उपक्रम की सह-संयोजिका।
*उपलब्धियाँ और सम्मान* :------
*शब्द सुगन्ध* सम्मान (2018) *नव सृजन काव्य मञ्जरी* सम्मान (2019) *काव्य पल्लव* सम्मान (2019) *साहित्यकार स्वाभिमान* सम्मान (2019) *शब्द कोविद* सम्मान (2019) *अंतरा शब्द शक्ति गौरव* सम्मान (2019) *कलम के सिपाही* सम्मान (2020) *कुण्डलिया विधा रत्न* सम्मान (2020) *साहित्य साधक* सम्मान (2020) *हिन्दी गौरव* सम्मान (2020) *लोकप्रिय रचनाकार* सम्मान (2020) *भाव भाषा निर्झरिणी* सम्मान (2020) *साहित्य सेवी* सम्मान (2020) *समय साक्षी* सम्मान (2020)
*प्रकाशन* :
*अन्तरा शब्द शक्ति प्रकाशन* से प्रकाशित पुस्तकें : ----
*अन्तर्नाद* (काव्य संग्रह) (2019), *शून्य और सृष्टि* - हाइकु रंग वृष्टि (2019), *धुंध की ओर* ( हाइकु : काव्य बोन्साई) (2019), *आपातकाल में सृजन फुलवारी* (व्यक्तिगत काव्य संग्रह) (2020), *आपातकाल में सृजन फुलवारी* (2.5 KG का साझा काव्य संग्रह) (2020), *हाँ ! मैं आत्मा हूँ* (कुण्डलिया विधा) (2020), *आर्ष विरासत* (कथा-काव्य संग्रह) (2020), *भाव और भाषा* (साझा) (2020), *अनोखा वर्ष 2020* (साझा) (2020)
*अन्य पुस्तकें :* ----
गीली माटी (काव्य संग्रह) (2018), हाइकु मंथन (साझा) (2019), अंजुली रंग भरी (साझा काव्य संग्रह) (2019), शाकुन्तलम् (खण्ड काव्य) (2019), वनबाला शकुन्तला (नाट्यरंग) (2019), चारु चिन्मय चोका (साझा) (2019), नव पल्लव (साझा काव्य संग्रह) (2019)
स्नेहांचल वेदना उपशमन केन्द्र, नागपुर के कैंसर पीड़ितों की सहायता के उद्देश्य से " *गीली माटी* " काव्य संग्रह रचकर, विक्रय से (20,000/-) धनराशि दान दी।
*आत्मकथ्य*
~~
भारद्वाज ऋषि द्वारा अधिष्ठित प्रयाग की पुण्य नगरी, संगम की पवित्रता, महादेवी वर्मा की भूमि और परिवार से मिले संस्कारों ने नैतिक मूल्यों को समझने बूझने के अनगिनत अवसर प्रदान किए। यूँ तो कभी सोंचा ही नहीं था कि काव्य व लेखन से भी जुड़ सकूँगी, किन्तु समय आने पर संस्कारों के बीज स्वयं ही अंकुरित होने लगे। कलम चलने लगी। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से प्राप्त शिक्षा में हिन्दी, संस्कृत के साथ इतिहास विषय ने भाषा व साहित्यिक रुझान को दिशा प्रदान की। विदुषी शिक्षिकाओं के द्वारा दिया गया विद्या दान समय आने पर अक्षरशः स्मृति पटल पर उभरने लगा और लेखन रुचियों का अभिन्न अंग बनता गया।
तीस वर्षों से अध्यापन से जुड़े होने के कारण आज की शैक्षणिक आवश्यकताओं को करीब से देख-समझ सकी। समाज में व्याप्त विसंगतियों को दूर करना, दिन-ब-दिन मृतप्राय हो रही संवेदना को जगाना व युवा पीढ़ी के विचारों में आन्दोलन लाना आसान नहीं था, फिर भी नैतिक मूल्यों को अपनी कविताओं के माध्यम से समाज के सम्मुख रखने का प्रयास करती चली गई।
आज मैं मात्र गीली माटी हूँ और अपनी रचनाओं के माध्यम से एक आकार लेने का प्रयास कर रही हूँ। इन रचनाओं को अपनी माँ के आशीर्वाद से आज के युवावर्ग को समर्पित करती हूँ।
प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से मुझसे जुड़े सभी अग्रगण्य आदरणीय लेखक मित्रों से आशीष की अभिलाषा रखती हूँ।
रचनाएँ अवलोकनार्थ प्रस्तुत हैं —-
1.
माँ मुझमें हैं या मैं हूँ माँ में ?
दिन-ब-दिन न जाने क्यूँ माँ जैसी होती जा रही हूँ
आजकल माँ के व्यक्तित्व में मैं समाती जा रही हूँ
दर-ओ-दीवार में बस चेहरा वो ही नज़र आता है
अक्स दर्पण में उनका ही बनता बिगड़ता जाता है
गूँजती है वही काँपती सी मृदु सरगम मेरे कानों में
संदूक खोलने बंद करने की आवाज़ है दालानों में
दिन-ब-दिन न जाने क्यूँ माँ की राह पर जा रही हूँ
आजकल माँ के व्यक्तित्व में मैं समाती जा रही हूँ
तब उम्र का जोश था और मैं सदा बनी रही वक्ता
आज उम्र के इस पड़ाव में बनी हूँ उन जैसी श्रोता
दिल चाहता है अतीत को फिर जिऊँ लौटा लाऊँ
वो आज मेरी बेटी और मैं उनकी ही माँ बन जाऊँ
दिन-ब-दिन न जाने क्यूँ नमी सी नैनों में पा रही हूँ
आजकल माँ के व्यक्तित्व में मैं समाती जा रही हूँ
सुख दु:ख दोनों जिए खड़ीं मुश्किलों से लड़ कर
हर मर्ज का रही हैं इलाज सदा एक असर बनकर
मेरे सिर पर रहा उनका हाथ ईश्वरीय दुआ बन कर
छूने न पाया मुझे दुःख खड़ी जो वो रक्षक बन कर
दिन-ब-दिन न जाने क्यूँ माँ में ही खोती जा रही हूँ
आजकल माँ के व्यक्तित्व में मैं समाती जा रही हूँ
2.
*मृगमरीचिका - एक मायाजाल*
~
अतीत की यादों व भविष्य के सपनों की कहानी
वर्तमान के दु:ख की भगिनी दर्द तनाव की जननी
प्रभुता औ दिखावे की चाह में भटकाए मृगतृष्णा
चंद्रिका के आँचल के छोर में छिपी हैै रात कृष्णा
जो चाहा था पाया नहीं पाया वही जो चाहा नहीं
जो सोंचा वह मिला नहीं मिला जो वह भाया नहीं
जो खोया वह भूला नहीं बचा जो है संभलता नहीं
खोने पाने की आपाधापी में सही कुछ होता नहीं
सर्वत्र मृगमरीचिका का भ्रमजाल आईना धुँधलाए
स्व परम्परा सर्वोपरि अन्य कथन मन को न भाए
हिंदु मुस्लिम सिख ईसाई सब मृगतृष्णा से ग्रसित
आत्मा हैं हम प्रेम रस बाँटें देव सत्ता न हो शापित
मरुस्थल में सूर्य किरण देती जल सर का आभास
शरद पूर्णिमा की यामिनी चंद्र सौन्दर्य का एहसास
गंध कस्तूरी है नाभि में वनमृग को तनिक न भान
यत्र तत्र ऐश्वर्य ढूँढता फिरे रहे खाली हाथ सुजान
3.
अन्तिम सत्य
दौड़ती भागती ज़िंदगी की रेस में थे भागीदार
सपने सजाए आकांक्षाएँ पालीं पलपल हज़ार
की जद्दोजहत छूटी ज़िन्दगी हाथों से बार बार
सबकी खुशी में दाँव पर लगाया अपना संसार
जीवन गँवाया ख़ुद को मिटाया सबको पाने में
न ये खुश हुआ न वो खुश हुआ इस ज़माने में
उँगलियाँ मचलती रहीं छूने को पूरा आसमान
समुद्र में ढूँढते रहे अपनी खुशियों का सामान
नाम और यश क्या मिला करने लगे गुणगान
तुच्छ सबको और माना ख़ुद को ख़ुदा महान
अंतिम समय जब साँसें रुकने को बेताब हुईं
दो ग़ज़ ज़मीन की ज़िन्दगी भी मोहताज हुई
सत्य दृष्टिगोचर हुआ परमशक्ति कोई और है
इस जीवन-नौका का खेवनहार कोई और है
मेरी उत्पत्ति में रज़ा उसकी है मालिक है वह
बस कतरा हूँ मैं मेरे कर्मों का निर्माता है वह
जीवन की गणित राशि का लेखाकार है वह
सुख दुःख चक्रवत् चले चक्र का आधार है वह
4.
*दशावतार*
~~~~~~
ग्लानि धर्म की जब होती पतित नीति अाचार
काल चक्र प्रभु लीलामय हरि के दस अवतार
हरि दर्शन से सत्यव्रत को हुआ बोध सुविचार
प्रलयकाल में जनसंरक्षण प्रभु मत्स्य अवतार
समुद्र मंथन में श्री विष्णु मंदराचल के आधार
वासुकी नाग बने थे नेती वे कच्छप अवतार
जलमग्न धरा घनघोर तमस प्रलय के आसार
दन्त थूँथन से वसुधा उठाई ले वाराह अवतार
हृण्याकश्यप अभिमानी प्रह्लाद भक्त साकार
नरसिंह आविर्भूत खंभ से अजब था अवतार
प्रतापीबलि से स्वर्ग हारकर देवेन्द्र करे पुकार
तीनपग का वरदान माँगा हरि वामन अवतार
राक्षस मुक्त किया त्रेतायुग लिया राम अवतार
श्री गीता का उपदेश दिया कृष्ण रूप अवतार
विनाश दर्प का करने आए परशुराम अवतार
बारहवीं शती में श्री विष्णु बुद्धरूप अवतार
कलि कृतयुग सऺधिकाल कल्कि का अवतार
अनृत अधर्म से मुक्त रहे धारेऺ सतयुगी विचार
पूर्ण ब्रह्म ही अनादि है अनन्त मुक्ति का द्वार
परमेश्वर वर्तमान की सत्ता भूतभविष्यआधार
5.
*कलियुग से सतयुग की ओर*
~~~~
शुकदेव रचें भागवत पुराण में कलिकाल समाचार
तड़प कर सच्चाई रोई देख झूठों का राज दरबार
सनातन ऋषि परम्परा पुराणोल्लिखित युग हैं चार
बीत गए सतयुत त्रेता द्वापर अब कलियुग की मार
सत्यं शिवं सुंदरं कल्पना चतुर्गुणित युग में साकार
त्रेता त्रिगुणित द्विगुणित द्वापर राम कृष्ण अवतार
कलियुग आया शास्त्रविमुख नर नहीं धर्म का सार
जीवन पूर्णबनावटी पर्युषित कटु विदाहीन आहार
असत्य अनाचाररत पुरुष भटके गृहस्वामिनी नार
बाह्याकर्षण सिरमौर हुआ निश्छल मन पर कटार
समझौते पर टिका सनातन पवित्र विवाह संस्कार
अपने सभी पराए होते उपनिषदों की यह दरकार
कलियुग में हिंसा लोभ दृष्टिगत चलित देह व्यापार
कपूत पिता पर लाञ्छन मँढ़ता पिता पुत्र पर वार
अनीति कुसंग गद्दार चढ़े सिर कलियुग के जो यार
न्याय व्यवस्था लचर बिक जाती खुले आम बाज़ार
महाभारत के वनपर्व में हैं संकेत कलिकाल हज़ार
कलियुगी गगन में द्वादश सूर्य से प्रचण्डताप संहार
बंजर धरती शुष्क खेत खलिहान सूखे की हो मार
सप्तसिंधु सरित् दरिया भी सूखे तलहट पड़ी दरार
त्राहि त्राहि का चीत्कार मचा है देस परदेस हरद्वार
नहीं अन्त ये विपदाओं का ये प्राकृतिक बहिष्कार
जल मग्न धरा द्वादश संवत्सर कल्कि का अवतार
विष्णुमाया से पुण्यात्माएँ जाग्रत पुन: सृष्टि संचार
हो सत्य धर्म संस्थापना दया दान तप का व्यवहार
आए सतयुग का नवल सूर्य उज्ज्वल प्रभात श्रृंगार
अस्तु।
रंजना श्रीवास्तव
(शिक्षिका – नागपुर)