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आज सृजक- सृजन विशेषांक में मिलिये झाबुआ (म.प्र.) की साहित्यकार प्रदीप कुमार अरोरा जी से। हमें आप सभी की समीक्षा की प्रतीक्षा रहेगी, अपनी प्रतिक्रिया कॉपी करके फेसबुक और वेबसाइट के लिंक पर भी जरुर डालें।
सभी मित्रों से निवेदन है कि आज पटल पर इन रचनाओं की समीक्षा के अतिरिक्त कोई भी क्रिया-प्रतिक्रिया या पोस्ट न डालें। पटल के सभी नियमों का पालन अनिवार्य रुप से करें।🙏🏼
निवेदक
संस्थापक
अन्तरा शब्दशक्ति संस्था एवं प्रकाशन
डॉ प्रीति समकित सुराना
परिचय
नाम- प्रदीप कुमार अरोरा
(आत्मज: श्री बी.एल. अरोरा -श्रीमती कमलआशा अरोरा)
जन्मतिथि- 22 नवम्बर 1962
स्थान – काँकरोली (राजस्थान)
शिक्षा – एम.ए.(समाजशास्त्र),
आशुलिपि हिंदी (पत्रोपाधि)
संप्रति :
इंचार्ज, ऑडिट कम्प्लॉयन्स एंड विजिलेंस डिपार्टमेंट, म.प्र. ग्रामीण बैंक, क्षेत्रीय कार्यालय झाबुआ।
अभिरुचि:
लेखन, स्कैचिंग, सुलिपि प्रसार.
लेखन विधा:
कविता, लघुकथा, व्यंग्य, ग़ज़ल, पत्रलेखन, समीक्षा
सम्पादन:
“अभिषेक” त्रैमासिक, बैंक की गृह पत्रिका 1992-1998 तक)
प्रकाशन:
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में सम्पादकीय पत्र, कविता, व्यंग्यलेख, कार्टून का प्रकाशन।
कृतियाँ/प्रकाशन वर्ष:
(1) प्राथमिकोत्तर ‘हिंदी सुलिपि मार्गदर्शिका’ 1998
(2) अनगढ़ रचनावली ”पग-पग शिखर तक” ( काव्य संग्रह), 2019
(3) अनगढ़ रचनावली ”रीता प्याला” (श्रृंगार काव्य), 2019
प्रस्तावित कृतियाँ :
- ग़ज़ल संग्रह
- हाइकु संग्रह
- लघुकथा संग्रह
- काव्य संग्रह
- “बैरी सावन” (विरह काव्य)
विशेष सफलता / गतिविधि:
- दोनों हाथों से लेखन,
- विपरीत दिशा से (हिंदी लिपि) का गतिमान विपरीत लेखन
(वर्ष 2020 में 7 अवसरों पर ‘कला, साहित्य और संस्कृति’ वाट्सअप समूह झाबुआ पर अखिल भारतीय साहित्य साधकों के ऑनलाईन काव्यपाठ का कार्यक्रम संपादन : ग्रुप एडमिन दायित्व निर्वहन)
सम्मान :
(1) “प्रतियोगिता प्रवेश” मासिक पत्रिका (मई’ 1986) में निबंध प्रतियोगिता में प्रथम स्थान
(2) नर्मदा वेलफेयर सोसायटी , जबलपुर द्वारा आयोजित सीनियर वर्ग की “अ.भा. हिंदी सुलिपि प्रतियोगिता” वर्ष 1999 में स्वर्ण पदक
(3) दैनिक भास्कर इंदौर द्वारा श्रेष्ठ पत्र लेखक का पुरस्कार (1988)
(4) शिक्षक कल्याण सदन, इंदौर द्वारा समाजसेवा के माध्यम से शिक्षा प्रसार श्रेणी में प्रदत्त “मालव शिक्षा सम्मान” (वर्ष 2000)
(5) आजाद साहित्य परिषद झाबुआ द्वारा “साहित्य सृजन सम्मान” वर्ष 2019 में
(6) राष्ट्रीय शिक्षक संचेतना, मराठा मन्दिर साहित्य शाखा मुंबई में “अटलश्री काव्य सम्मान” वर्ष 2019
(7) आजाद साहित्य परिषद झाबुआ द्वारा “शब्द सरस्वती सम्मान” वर्ष 2021
फोन नं. :9425192297
8889055581
ईमेल arora.pku@gmail.com
पता: ‘आनंदमठ’ एम आईजी -54, हाउसिंग बोर्ड कॉलोनी (प्रथम) झाबुआ (म.प्र.) 457-661
आत्मकथ्य
परिस्थितियाँ हमारे आस-पास नृत्य करती हैं। उस नृत्य के हावभाव , गति और पार्श्व संगीत (परिस्थितियों के स्वरूप, उसकी मारक अथवा आनंदित कर देने की क्षमता और उसके पीछे छुपे सकारात्मक सन्देश) को सहेजकर शब्दों के माध्यम से निर्णायक की भूमिका निभाने का निरन्तर प्रयास करता रहता हूँ, सभी इसे मेरा काव्य कहते हैं, और मैं कहता हूँ – “अनगढ़ रचनावली।”
रचनाएँ
(1) “वीणा के तार”
वीणा के तार
जब झंकृत होते हैं
तारों का कम्पन्न
व्यक्त करता है अपनी पीड़ा,
गहरी कसावट
नुकीली चोट
करती रहती है उसे आहत,
वीणा से उभरा सरगम
श्रोता को करता आह्लादित
क्योंकि
वाद्य की पीड़ा को
साधक की साधना
और सुंदरतम स्वरों से
मिलता है खूबसूरत आवरण,
ऐसा नहीं कि
वीणा के तार कभी टूटते नहीं,
टूटते हैं
जुड़ते हैं
और पुनः
प्रवाहित करते हैं
नव सरगम,
वीणा तो वीणा है
वीणा का अपना धर्म है,
कम्पन्न की पीड़ा पर
स्वरों का मर्म है ,
मैंने जाना
इंसान वीणा तो बजा सकता है
लेकिन
परिस्थितियों की कसावट से
खुद के टूटने पर
पुनः खड़े हो
कभी वीणा के धर्म
और
सुर के मर्म को
अंगीकार नहीं कर सकता,
इंसान को जब
वीणा का
यह धर्म- मर्म
समझ में आ जायेगा,
गीता का ज्ञान
विवेकानंद का संदेश
जीवन में वह
स्वतः पा जाएगा।
(2) “गरीब की चप्पल”
टूटी हुई चप्पल
जगह-जगह तार से
बंधी हुई,
हर सम्भव
उसकी कसावट
चप्पल की उपयोगिता के
स्तर तक है,
ये चप्पल
किसी इंसान की गरीबी से कहीं अधिक
उसकी संतुष्टि
और परिस्थिति से
सामंजस्य की प्रतीक है,
संघर्षों से परेशान शख्स
फाँसी के फंदे की कसावट में
जो समाधान खोजते हैं
उनकी बनिस्बत
इन टूटी चप्पलों पर तार की कसावट
जीवन को अंगीकार कर
हर परिस्थिति में
साहस की श्वांस लिए
कर्तव्य का बोध कराती है,
मैंने कभी ये चप्पल
अपने आंगन में नहीं देखी
लेकिन
सामंजस्य के कई उपकरण
मैंने अवश्य देखे हैं,
टूटी सीट वाली सायकल,
मरम्मत की हुई खटिया,
बर्तन रखने के लिए
दीवार पर ठोका गया
फफूंद लगा पटिया,
पैबंद लगे
बाबूजी के पाजामे,
करीने से माँ द्वारा
उधड़े ब्लाउज की घर पर की गई तुरपाई
भला कोई कैसे पहचाने,
क्या-क्या गिनाऊँ
तब सब कुछ तो टूटा-टूटा था,
यदि ना टूटा था तो सिर्फ और सिर्फ
बाबूजी और मां का साहस,
मित्र,
टूटना-बिखरना कोई नहीं चाहता,
ये कालचक्र है
विधि -विधान है,
याद रखना
जो शख्स
अपने कदमों को
जितना रखता है सख्त,
वह उतना ही महान है।
(3) ग़ज़ल :
आज फिर यहाँ कोई कमाल हो जाए,
मैं करूँ प्रार्थना और तू निहाल हो जाए।
पखारे पग रघुकुल जहाँ आज केवट के,
बेमानी है गर’ इसपर कोई सवाल हो जाए।
समरसता जहाँ बरसे हर एक बस्ती में,
माँ भारती का क्यों न ऊँचा भाल हो जाए।
सदियों की महामारी जो नासूर बन उभरी,
हो उपचार यह कालांश स्वर्णकाल हो जाए।
गरल के घूँट जो भर ले विकट जीवन के,
‘प्रदीप’ वही किरदार फिर महाकाल हो जाए।
(4) “मम्मा की रसोई”
बचपन में जो देखा मम्मा
बीती वो बात कहानी है,
धुँआ-धुँआ उस रसोई का
किस्सा आज बयानी है।।1।।
जलन आँखों में देखी मैंने
उस पर नेह आवरण था,
तिल-तिल तू झुलसी सदा ही,
तेरा पूर्ण समर्पण था।
क्या करूँ मैं तुझे परिभाषित,
तू हर बेटे की जुबानी है।
धुँआ -धुँआ उस रसोई का
किस्सा आज बयानी है।।
जब भी दूध से मुँह मोड़ा मैंने
मुझको तेरी गोद मिली,
मिले बहुत भ्रमित आश्वासन,
झिड़की मुझको बहुत मिली,
अब कौन कहे ले पी ले लल्ला,
ये दूध नहीं रे पानी है ।
धुँआ- धुँआ उस रसोई का
किस्सा आज बयानी है।।
तू मम्मा, तू ताई, चाची थी
बहू,भार्या बन काम किया,
हर रिश्ते को स्नेह से सींचा
प्यार भरा अंजाम दिया,
दूध- घृत रहा भाग हमारे,
तेरे भाग रहा वो पानी है।
धुँआ- धुँआ उस रसोई का
किस्सा आज बयानी है।।
एक हाथ में फूंकनी देखी,
एक हाथ बेलन देखा,
काम करते तेरे होंठ पढ़े तो,
सदा प्रभु स्मरण देखा,
भोजन रूप प्रसादी बनती
अब वो कहाँ रसधानी है ।
धुँआ-धुँआ उस रसोई का
किस्सा आज बयानी है।।
गृहणी नहीं तू कर्मयोगिनी थी,
फिर भी तानों का था चलन,
चुप्पी में तेरी मर्यादा देखी,
हर तरह का देखा शोषण ।
मैं भी आँसू बहाकर पूछता,
क्यों तेरी आँखों में पानी है।
धुँआ- धुँआ उस रसोई का
किस्सा आज बयानी है।।
बदल गया है आज समय
घर -घर में है नया चलन,
या तो आया पाले सन्तानें
या होस्टल में संरक्षण,
किस ओर चली है ये दुनिया
बचपन में यौवन रवानी है।
धुँआ- धुँआ उस रसोई का
किस्सा आज बयानी है।।
(5) बाबूजी की छतरी
बाबूजी की छतरी
खो गई कहीं,
पता नहीं ,
खोई तो क्या
रखा होगा
सहेज कर
अम्मा ने यहीं- कहीं,
पता है उसे
आज फोल्डिंग छाते के आगे/
बाबूजी की धरोहर की
क्या बिसात,
कौन समझता है/
आधुनिक युग में
पुराने मन के जज्बात,
लेकिन
कदापि नहीं ऐसा
मेरे जेहन में
अब भी कई बातें हैं,
कुछ यादें हैं छतरी की
और बहुत कुछ सौगातें हैं।
छतरी केवल छतरी नहीं
जीने का प्रकल्प थी,
बुढापे में
जब लड़खड़ाए पैर/
पीठ झुकी /
यह छतरी ही
बाबूजी की लाठी का विकल्प थी,
याद है मुझे
जब बाबूजी की
हिंदी क्लास लग जाती थी,
मेरी पीठ पर
बाबूजी की छतरी
जमकर फट्टा लगाती थी,
तब पता नहीं था
मुँह से निकली चीख
क्या लाभ दे जाएगी,
आज वही
बाबूजी की छतरी
मेरी कविता बन जाएगी।
ऐसा नहीं कि बाबूजी सदैव
नाराज हमसे होते थे,
सुना है
जब हम ननिहाल गए होते
वे रात-रात भर रोते थे,
बाबूजी का हम पर तब
विश्वास अटूट,
प्यार भी भरपूर था,
सही राह हमें दिखलाने को
छतरी पर उन्हें गुरूर था,
जब पिकनिक पर
सुनसान राहों से
गुजरकर हम जाते थे,
बाबूजी छतरी को बना हेकड़ी
बेर -अमरूद
टप-टप टपकाते थे,
सभी भाई बहनों ने
छक कर तब
बेर -अमरूद ही खाए थे,
कभी ख़ौफ़
रहा होगा छतरी का
हमने उस दिन /
छतरी के ही
गुण गाये थे।
तभी देखा
उथली नदिया में
बढ़ते पानी का वेग,
कोई आ जाए चपेट में
फिर करता नहीं वह भेद,
तभी ठिठके बाबूजी
मेमने की
सुन आवाज,
बहते पानी में
बढ़ा दी छतरी
लेकर कुछ अंदाज,
प्राण बचे एक बेजुबान के
छतरी ने किया कमाल,
बचा मेमना
बाबूजी की छतरी से
जो खिंचती थी कभी खाल।
कितने किस्से सुनाऊँ छतरी के
अब / बाबूजी बहुत दूर हैं,
मावठे की बारिश ने /
देकर दस्तक
दिलाई याद भरपूर है।
प्रदीप कुमार अरोरा
झाबुआ (म.प्र.)