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आज सृजक- सृजन समीक्षा विशेषांक में मिलिये दुर्ग(छत्तीगढ़) की साहित्यकार प्रेम सिंह जी से। हमें आप सभी की समीक्षा की प्रतीक्षा रहेगी, अपनी प्रतिक्रिया कॉपी करके फेसबुक और वेबसाइट के लिंक पर भी जरुर डालें।
सभी मित्रों से निवेदन है कि आज पटल पर इन रचनाओं की समीक्षा के अतिरिक्त कोई भी क्रिया-प्रतिक्रिया या पोस्ट न डालें। पटल के सभी नियमों का पालन अनिवार्य रुप से करें।🙏🏼
निवेदक
संस्थापक
अन्तरा शब्दशक्ति संस्था एवं प्रकाशन
डॉ प्रीति समकित सुराना
*परिचय
-श्रीमती प्रेम सिंह
धर्मपत्नी-एस•एन•सिंह
जन्मतिथि-०२फरवरी१९५३
जन्म स्थान-वाराणसी
वर्तमान निवासी-दुर्ग छ•ग•
शिक्षा-स्नातक(बी•एच•यू•)१९७२
बी•एड•(गोरखपुर विश्वविद्यालय)१९७४
एम•ए•(हिंदी साहित्य)१९९९
एम•एड•(रविशंकर विश्वविद्यालय)२००२
कार्यक्षेत्र-सेवानिवृत प्रधानाचार्य२००९
उपलब्धियाँ एवं पुरस्कार
साहित्यिक गतिविधियों को प्रोत्साहित करना यू•एस•सो•परीक्षा कार्यन्वित करना, सृजन संस्था के साथ लगातार दस वर्षों तक कार्य करना।
वक्ता मंच रायपुर द्वारा आयोजित काव्य लेखन प्रतियोगिता में उत्तम काव्य लेखन पुरस्कार।
नवभारत पत्रिका में रविवारीय अंक में काव्य लेखन प्रतियोगिता में समय- समय पर पुरस्कार मिला।मेरा सौभाग्य है कि८जून२०२०को अंतरा परिवार से जुड़ी।इसका श्रेय आ•सीता जी को जाता है।मैं हृदय से धन्यवाद देती हूँ।
अंतरा शब्द शक्ति की उपलब्धियाँ आपके समक्ष है।साझा संकलन भाव-भाषा निर्झरिणी सम्मान मिला साथ ही समय समय पर बेबसाइट पेज़ पर काव्य और धुआं में उड़ता युवावर्ग लेख को भी स्थान मिला।पिछले माह स्नेह सेतु सम्मान पाकर खुशियाँ द्विगुणित हो गई।अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर छत्तीसगढ़ महिला रत्न से सम्मानित किया गया।
आत्मकथ्य
साहित्यिक गतिविधियों में अभिरुचि बचपन से थी।एक नीली पुरानी डायरी में छुप छुप कर गाना और कविता लिखने की रुचि आज भी बरकरार है।
विद्यार्थी जीवन में महादेवी वर्मा जी, डॉक्टर हजारी प्रसाद द्विवेदी जी, कृष्ण मूर्ति जी, आचार्य रजनीश, पुपुल जयकर जैसे महान साहित्यकारों, दार्शनिको का सानिध्य प्राप्त होना, सुनना हमारे पूर्व जन्म के कर्मों का ही फल है।आज भी अंतरा परिवार की संस्थापिका आ•प्रीति जी,आ•पिंकी जी,टीम एवं पटल के सभी सदस्यों की ऋणी हूँ जिन्होंने इतना प्यार सम्मान दिया।आज आप सभी के सकारात्मक सोच से लेखनी को उत्तरोत्तर गति मिल रही•••!
रचनाएँ
आत्मा के सौंदर्य का,
शब्द रुप है काव्य!
मानव होना भाग्य है,
कवि होना सौभाग्य!!
पटल के सभी आत्मीय जनों को मेरा प्रणाम!
1) आह्वान
माँ तेरी महिमा निराली,
अपने नौ रूपों को धरकर,
जगत का कल्याण किया।
शुम्भ निशुम्भ असुर तुम मारी,
महिषासुर का वध किया।
दुष्टों की संहारिणी काली!
भक्तों का बेड़ा पार किया।
अम्बा,अम्बे,अम्बालिका तू!
कृष्णा, काली, भवानी माँ!
एक बार मन के रावण का,
पुनः संहार कर दे माँ!
आज भैरवी एक बार आ जा,
कर दे इन दैत्यों का नाश,
जो राक्षसी भावना रखें,
माँ, बहनों का करे न सम्मान।
उनका अन्त करो हे माता,
बनकर नरसंहारिणी माँ!
रोग, शोक, संताप हरो माँ,
दूर करो भय हारिणी माँ!!
2) जज़्बात
समय के पन्नों पर,
अपने जज़्बात लिखती हूँ।
भली हो या बुरी,
अपने दिल का हाल लिखतीहूँ।
जैसी भी हो गुज़री,
हर वो बात लिखती हूँ।
उम्र की दहलीज़ पर,
कब जिन्दगी की शाम होजाये।
रह न जाये कोई जज़्बात,
सुबह-शाम लिखती हूँ।
सपने बुनती, आशाओं के,
उनका हिसाब लिखती हूँ।
अपने ख्वाबों में गुनती हूँ,
हर पैगाम लिखती हूँ।
रह न जाये कोई जज़्बात,
उनका हिसाब लिखती हूँ।
3) जरा संभल कर
आज परीक्षा की घड़ी है,
चलना जरा संभल कर
खुशियाँ न छूट जाये,
रहना जरा संभल कर।
इस दौर से गुजरना,
है बहुत ही मुश्किल।
पर हौसले बुलंदी,
शिकायत न करने देंगी।
हम-तुम रहे सलामत,
ये दुआ सभी की होगी।
हर अमावस के बाद,
एक नई सुबह तो होगी।
पूर्णिमा की चाँदनी से,
रोशन जहाँ तो होगा।
ये रास्ते कठिन हैं,
चलना जरा संभल के।।
4) सहारा
हथेली की लकीरों से,
भाग्य नहीं बनता।
बिना सहारे के,
बेड़ा पार नहीं होता।
जब हम गिरते हैं,
तुम ही उठाते हो।
हर डूबने वालों को,
बस तुम ही बचाते हो।
अम्बर के तारे हो,
अवनी पर जीवन धारा हो।
जीवन का बोझ उठाने को,
बस हाथों का सहारा है।
सही राह दिखा देना,
हम सब पर कृपा करना।।
5) दर्द
मोहब्बत और दर्द का,
रिश्ता तो देखिये।
एक को दिल,
दूसरे को धड़कन चाहिए।
जहाँ जडों में ज़ख्म लगते हैं,
टहनियाँ सूख जाती हैं।
जब-जब हौसला हमारा,
आसमां को छुएगा।
तब-तब पंख काटने,
जरूर कोई आयेगा।
सभी जवाबों से अच्छी,
है मेरी खामोशी!
सभी सवालों का,
आबरू रख लेती है।
हम चुप हैं, इसलिए रिश्ते हैं।
कुछ रिश्ते हैं, इसलिए चुप हैं।
कुछ कह गये, कुछ सह गये।
कुछ कहते-कहते रह गये।
मैं सही, तुम गलत के खेल में।
न जाने कितने रिश्ते ढह गये।
वक्त, एतबार, इज्ज़त,
ऐसे परिन्दे हैं,
जो एक बार चला जाये,
वापस नहीं आते।।
प्रेम सिंह ,दुर्ग।