श्रीमती अंजू सुनील भूटानी- सृजक सृजन समीक्षा विशेषांक
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आज *सृजक- सृजन समीक्षा विशेषांक* में मिलिये *नागपुर (महाराष्ट्र)* के रचनाकार *श्रीमती अंजू सुनील भूटानी* जी से। हमें आप सभी की समीक्षा की प्रतीक्षा रहेगी, अपनी प्रतिक्रिया कॉपी करके फेसबुक और वेबसाइट के लिंक पर भी जरुर डालें।
सभी मित्रों से निवेदन है कि आज पटल पर इन रचनाओं की समीक्षा के अतिरिक्त कोई भी क्रिया-प्रतिक्रिया या पोस्ट न डालें। पटल के सभी नियमों का पालन अनिवार्य रुप से करें।🙏🏼
*निवेदक*
संस्थापक
*अन्तरा शब्दशक्ति संस्था एवं प्रकाशन*
डॉ प्रीति समकित सुराना
*परिचय:-* श्रीमती अंजू सुनील भूटानी
(सुता: श्री देशराज वधवा-श्रीमती वेदवती वधवा)
*जन्मतिथि:-* 20 दिसंबर 1964
*स्थान:-* नागपुर
*शिक्षा:-* एम. ए.एम. फिल( अंग्रेजी वाङ्गमय), बी.एड
*संप्रति:-* प्राचार्या, भवन्स भगवानदास पुरोहित विद्या मंदिर, सिविल लाइन्स, नागपुर
*अभिरुचि:-* पढ़ना, पढ़ाना, अध्ययन एवं अभ्यास। इसके अलावा संगीत सुनना और बागबानी में रुचि रखती हूँ।
*लेखन विधा:-* कविता, कहानी, लघुकथा एवं आलेख
*संपादन:-* अनुशंजनम और वार्तापत्रकम (वार्षिक पत्रिका एवं न्यूज़ लेटर)
*प्रकाशन:-* विभिन्न समाचार पत्रों एवं पत्रिकाओं में कविता एवं आलेख
विभिन्न शिक्षा से संबंधित विषयों में प्रस्तुतीकरण राष्ट्रीय एवं स्थानीय स्तर पर
कविता संग्रह:
*1.कुछ बातें-अनसुनी…अनकही*
*2. दर्पण-हृदय में आरसी*
*विशेष सफलताएँ:-*
1. सर्वश्रेष्ठ प्राचार्या सम्मान
2. बी.ए. में अंग्रजी साहित्य में प्रावीण्य प्राप्त करने के लिए *स्वर्ण पदक*
3. एम. ए. में प्रावीण्य सूची द्वितीय स्थान प्राप्त करने के लिए *रजत पदक*
*सम्मान:-*
1. प्रथम पुरस्कार- सर्वश्रेष्ठ सम्पादकीय पत्र लेखन
(1986)
2. फीमेल राइटर्स द्वारा आयोजित कविता प्रतियोगिता में तृतीय स्थान
3. *कलम बोलती है-*
साहित्य समूह द्वारा श्रेष्ठ रचनाकार का सम्मान
*आत्मकथ्य:-*
सात बहन-भाइयों में सबसे छोटी और सातवीं की विषम संख्या कारणवश मेरा कोई संगीसाथी, भाई या बहन नहीं था। किताबें बनी मेरी संगिनी । पढ़ते -पढ़ते लिखना जीवन का अहम हिस्सा बन गया।
शब्दों की अनूठी दुनिया हैं। शब्दों से खेलना सुगम तो नहीं पर खेलना मेरा पसंदीदा शौक हैं।
लिखना तो एक बहाना है, ढूँढना है अपने मन में छिपे *आरसी* को…….
*प्रस्तुत हैं मेरी कविताएँ*:-
*1. मुसाफिर*
राह कँटीली
पथ दुर्गम
अजेय मुसाफिर
बढ़ता जाये।
घना अँधेरा
रास्ता संकरा
धैर्यवान पथिक
कदम बढ़ाता।
अनेक पथ
अनेक मंज़िल
चलते जाये
एक मुसाफिर।
अभ्रमित राही
अडिग हिम-सा
लक्ष्य अर्जुन-सा
फहराता विजय पताका।
*2. एक बूढ़ी साइकिल*
घर के आँगन में रहती
एक बूढ़ी-सी साइकिल
चेतक-सी तेज चलती
जब करते सवारी बाबूजी।
कितना ढोया समान उसने
गेहूँ -चावल के बोरे
कभी सब्जियों से लदी
कभी लायी आम- तरबूज।
बाबूजी की तरह थी
नायाब वह साइकिल
पता नही कम पैसों
भर-भर लाती समान।
स्मृतियों की हरियाली में
आज भी रहती साइकिल
धूप, गर्मी, सर्दी, वसंत में
जिसको चलाते थे बाबूजी।
*3. खुशबू*
यादों के गलियारों
बसती बचपन की खुशबू
माँ की देह से आती थी
मसालों, आटे, गजरे की खुशबू
पानी की बूँदें गिरती धरा पर
बिखर जाती मिट्टी की खुशबू
मंदिर में बजती हैं घंटी सुहानी
बन गुल उड़ जाती बाती की खुशबू
इत्र बन महकती मेरे मन-आँगन
प्रथम प्रणय निवेदन की खुशबू
बिटिया की गलबहियाँ
भर देती आत्मा में ममता की खुशबू
बस गयी हैं मेरे जीवन की
न जाने कितनी खुशबुओं की खुशबू
*4. वह जलता दीया*
वह जलता दीया
घटता तेल, क्षीण रोशनी
किश्तों में बंधी जिंदगी
थका-सा बंधन
रिक्तता जीवन की।
फिर भी कुछ
कर जाने की आस
वह जलता दीया …
दीवा स्वप्न की तरह
लौ पकड़ने को आतुर
उसकी उंगलियाँ और…
अचानक धधकती हैं आग
उठ खड़ी होती हैं थामे तलवार।
ललकारती हैं जिंदगी को
रौंदती काँटों को
दामन में शूलों से जो चुभते।
चीरती दुखों की लहरों को
बढ़ती आगे-आगे
मन में आत्मविश्वास की
लौ जलाकर
मार्ग स्वयं का प्रशस्त करती।
कण – कण बटोरती
चिर रोशनी के-
भर रगों में अमर जिजीविषा
वह जलता दीया …
*5. वजूद*
वजूद की तलाश में
आरंभ हुई यात्रा
अस्तित्व, पहचान, अस्मिता
की अंतहीन खोज
हृदय में बसते आरसी
पंचतत्व से बने वजूद से
रूबरू कराते आरसी
स्वयं की पहचान कराते आरसी।
छतरी-सा आभा मंडल
संरक्षण देती अग्नि
जीवन स्पंदन वायु
पोषण करती धरती।
पंचतत्व से पंचतत्व के बीच
हैं मानव कर्मस्थली
मिट्टी के कलश में
समा जायेगा वजूद।
रह जायेंगे स्मृतियों के अवशेष
वजूद की तलाश
बस यही रहेगा शेष…
*अंजू भूटानी*