श्रीमती अनुजा दुबे ‘पूजा’- सृजक सृजन समीक्षा विशेषांक
फेसबुक पेज का लिंक
https://www.facebook.com/253741051744637/posts/1200100187108714/
फेसबुक समूह का लिंक
https://www.facebook.com/groups/antraashabdshakti/permalink/3826654080717034/
आज *सृजक- सृजन समीक्षा विशेषांक* में मिलिये *भंडारा (महाराष्ट्र)* के रचनाकार *श्रीमती अनुजा दुबे ‘पूजा’* जी से। हमें आप सभी की समीक्षा की प्रतीक्षा रहेगी, अपनी प्रतिक्रिया कॉपी करके फेसबुक और वेबसाइट के लिंक पर भी जरुर डालें।
सभी मित्रों से निवेदन है कि आज पटल पर इन रचनाओं की समीक्षा के अतिरिक्त कोई भी क्रिया-प्रतिक्रिया या पोस्ट न डालें। पटल के सभी नियमों का पालन अनिवार्य रुप से करें।🙏🏼
*निवेदक*
संस्थापक
*अन्तरा शब्दशक्ति संस्था एवं प्रकाशन*
डॉ प्रीति समकित सुराना
*परिचय*
*नाम*:- श्रीमति अनुजा दुबे ‘पूजा’
*पति*:- श्री सुनीत कुमार दुबे
*माता*:- श्रीमति किरण अवस्थी
*पिता*:- स्व.श्री अखिलेश्वर अवस्थी
*शिक्षा*:- बी.एस. सी., बी.एड., एम.ए.(दर्शन शास्त्र)
*पता*:- USA Vidya Niketan
Sri Ram Bhawan Campus,Tumsar
Dist. Bhandara
PO Tumsar
Pin- 441912(Maharashtra)
*व्यवसाय*:- शिक्षिका(विज्ञान),तुमसर,नागपुर
*रुचियां*:- ड्राइंग,पेंटिंग,सिलाई,पाककला एवं साहित्य लेखन।
*प्रकाशन*:- ●साझा संकलन के रूप में कविताएं प्रकाशित हुई हैं।
१)केसरिया
2)आह्लाद
3)कस्तूरी सुगंध
4)लेख(अनोखा वर्ष 2020)
5)अन्तरा शब्द शक्ति के ई-बुक में कहानी।
●ई-प्रकाशन *अभिव्यक्ति* के कई भिन्न भिन्न अंको में भी कई कविताओं का प्रकाशन।
●स्कूल मैगजीन में कविता का प्रकाशन।
*सम्मान*:- मेरे लेखन को लेकर मुझे पहला सम्मान *अंतरा शब्द-शक्ति* की ओर से ही प्राप्त ट्रॉफी और सम्मान पत्र *अनोखा वर्ष 2020* के लिए।
*आत्मकथ्य*:- मै एक बहुत ही साधारण परिवार से हूँ। मेरे पापा ने अपने बचपन मे बहुत गरीबी देखी किन्तु अपनी पढ़ाई और मेहनत के बल पर उन्हें रेलवे में नौकरी मिली और धीरे धीरे परिवार के हालात सुधरने लगे।मेरी बुआ ने शादी नही की पहले उन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी करी, फिर अपने से दस साल छोटे भाई यानी मेरे पापा को अपने पास रखकर पढ़ाया उसके बाद मैं और मेरी दीदी की पूरी पढ़ाई उन्ही के पास रहकर हुई।
मेरे अंदर लेखन के प्रति रुचि थोड़ी बहुत मेरी बुआ और पापा से ही आया है। लेकिन जिंदगी की जद्दोजहद में मेरे पापा और बुआ की लेखनी भी सिर्फ उन्हीं के पास तक रह पाई। मैं भी पढ़ाई और घर के अनेक कामो के चलते इसकी ओर कभी ध्यान नही दे पाई।
उस समय मासिक पत्रिका कादम्बिनी में एक चित्र छपता था और उस पर चार पंक्ति लिखकर भेजना रहता था।मैं भी कोशिश करती थी किन्तु वो सब भी मेरे तक ही सीमित रहा।
ग्रेजुएशन के समय मैं मुरारी बापू की रामकथा से बहुत प्रभावित हुई,उस समय मैंने लगभग पचास-साठ भजन लिख डाले। शायद वो ईश्वर की ओर से मेरी लेखनी को पहला आशीर्वाद था।
अंततः मेरी लेखनी को जो पर मिले वो इस महान समूह से मिले।आने वाले जून में मुझे इस समूह से जुड़े एक वर्ष हो जाएगा।
मैं आप सभी के समक्ष साहित्य की दृष्टि से बहुत तुच्छ हूँ। न तो मेरे पास कोई उपलब्धियां हैं, न मैं किसी बहुत बड़े ओहदे पर हूँ और न ही कोई बहुत बड़ा सम्मान पाया है।
मेरा इस समूह से जुड़ना ही मेरे लिए सबसे बड़ी उपलब्धि है, इसके बाद यदि कोई उपलब्धि मुझे मिलेगी तो वो इससे छोटी ही होगी।और दूसरी उपलब्धि ईश्वर द्वरा प्रदत्त मेरा छोटा सा, प्यारा सा परिवार।
*लेखन का उद्देश्य*:- बिना झिझके कहूँगी कि *मन की शांति*।
यदि मेरी कोई रचना किसी के दिल को छू जाये और वो उस रचना को बार बार पढ़ना चाहे तो इसे मैं अपना सौभाग्य समझूँगी।
*रचनाएँ*
1)
*औरत*
वो है औरत, न उस पर *शक* कीजिये,
प्यार का रूप है,प्यार ही कीजिये।
*पुत्र के लिए*
माता बनकर है उसने,जनमा तुझे
पालपोसा,संभाला,बड़ा है किया,
फिक्र तेरी करी,जागी वो रातभर
चलना तुझको सिखाकर,खड़ा है किया,
प्रेम,ममता भरा एक अवतार है,
चरणों में रख के सर उसे पूजिये।
वो है औरत न……..
*पिता के लिए*
बेटी बनके जब पैदा हुई घर तेरे
रोशन जीवन तुम्हारा है फिर से किया,
तेरा आँगन सजा उसकी मुस्कान से,
तुझको फिर एक पिता का है दर्ज़ा दिया,
नाजो से वो पली,मोम की गुड़िया है,
देके आशीष, उसका सर चूमीये।
वो है औरत………
*भाई के लिए*
बनके बहना तेरे साथ खेली,बढ़ी,
मुश्किलों में तेरे साथ हरपल रही,
ग़लतियों को सभी से छिपाया तेरी
तेरी लम्बी उमर की दुआ है करी,
रचना सृष्टि की अनमोल,तेरी बहन
तोहफा रब का समझ,हिफ़ाजत कीजिये।
वो है औरत………..
*पति के लिए*
पत्नी बनकर सँवारा है जीवन तेरा
दूर तेरा अकेलापन है किया,
साथी बनके तेरे हमकदम वो रही
दुख औ सुख में भी साथ निभाया किया,
रंग में तेरे रंगी इश्क-ए-मूरत है वो,
देके इज्ज़त दिलों में बसा लीजिये
वो है औरत …….
अनुजा दुबे(स्वरचित✍🏻)
7 सितम्बर 2020
2)
*ज़िन्दगी*
रिश्तों से ही सदा ये रोशन है जिंदगी,
वरना ये इक वीरान ज़मी सी है जिंदगी।।
ज़रूरी नही हर रिश्ते का कोई नाम हो यहाँ,
बेनाम रिश्तों से भी है रंगीन ज़िन्दगी।
लगते हैं जिनको रिश्ते कभी बोझ के जैसे,
काटे नही कटती है उनसे ये जिंदगी।
रिश्तों को कभी पैसो से तोला नही करते,
पैसे की नही होती है बुनियाद जिंदगी।
रिश्ते जो दिल से बनते हैं दिमाग से नही,
ऐसे ही लोगों से सदा सजती है जिंदगी।
हर हाल में जो रिश्ता निभाते चले गए,
ऐसे ही लोगों पे फ़ना होती है जिंदगी।
रिश्ते ही हैं जिनकी ख़ातिर चलती है जिंदगी,
हँसती है जिंदगी कभी रोती है जिंदगी।
संबंधों को जो अहमियत देते रहें सदा,
उनके लिए होती है ख़ुशगंवार जिंदगी।
अनुजा दुबे (स्वरचित✍️)
22 जुलाई 2020🙏🏻
3)
*वृद्धाश्रम*
साँसों की पूँजी, को खर्च करके
मैने तुझे था पाला,
जब तू गिरा या रोया कभी तो
मैने तुझे था सम्भाला,
ये क्या हुआ अब?
कैसे हुआ कब?
क्यूँ करके छोड़ा मुझे अब,
जीवन कहाँ आ गया अब……
कोई नही है अपना यहाँ पर
क्यूँ अब हैं सब मुझसे रूठे,
आँसू के मोती से जिनको सजाया
रिश्ते थे क्या सब झूठे,
जहाँ थी वहाँ से
आ गई कहाँ मै
घिर गई अकेलेपन से अब,
जीवन कहाँ आ गया अब…….
आँखों की गहराइयों में न जाना
छिपा है जिसमें खजाना,
बचपन से अबतक के तेरे वो सपने
बस तुम इन्हें न चुराना,
आँसू जब बहते
ये धुंधले हैं पड़ते
पर ये ही साथी मेरे अब,
जीवन कहाँ आ गया अब…..
ये झुर्रियां हैं अनुभव की गलियाँ
मिलेंगे सभी पल यहाँ पे,
रोना या हँसना, रूठना,मनाना,
छिपे सारे भाव यहाँ पे,
अब सोचती हूँ
अब खोजती हूँ
की ग़लती कहाँ हुई थी मुझसे तब
जीवन कहाँ आ गया अब……
मेरे जनमदिन पे देते थे मुझको
ढेरों बधाई हृदय से,
लम्बी उमर हो,हो स्वास्थ्य अच्छा
कहते थे अपने हृदय से,
क्यूँ दिल से उतारा
क्यूँ ऐसे नकारा
बैठा दिया नये से घर में अब,
जीवन कहाँ आ गया अब…..
अब भी मेरी,दुआ है तेरे संग
तेरी ही चिंता सताती,
माँ हूँ मैं तेरी भूलूँगी कैसे
रह रह तेरी याद आती,
तुझको पुकारूँ
तेरी राह निहारूँ
पता है कि न आएगा अब,
जीवन कहाँ आ गया अब……
अनुजा दुबे(स्वरचित✍🏻)
अप्रकाशित/मौलिक
13 दिसम्बर 2020
4)
विषय:- *शोर/कोलाहल*
शीर्षक:- *जिम्मेदारियां*
जबसे पैरों पर खड़े अपने हुए हैं दोस्त हम,
तबसे लेने मैं लगी हूँ बोझ जिम्मेदारियों का।।
मछली बनकर फँस गई यूँ,अब नही मुमकिन निकलना,
दूर तक फैला हुआ है जाल जिम्मेदारियों का।।
कुछ नयी सी कुछ पुरानी,कुछ मन की कुछ बेमानी,
नित नया ही रूप होता हैं इन जिम्मेदारियों का।।
चैन से भी बैठने देती नही हमको कभी,
कुछ न कुछ टंटा लगा रहता है जिम्मेदारियों का।।
हो रही खामोश सी अब ख़्वाहिशें मन में कहीं,
बढ़ रहा है *शोर* कितना रोज जिम्मेदारियों का।।
कर नही सकते नजरअंदाज जिम्मेदारियां,
नींद में भी कांरवा चलता है जिम्मेदारियों का।।
अनुजा दुबे(स्वरचित✍🏻)
अप्रकाशित/मौलिक
11 दिसम्बर 2020
5)
*पिता*
जो तपता धूप में दिनभर,जो देता घर को छाया है,
घर के लोगो पे रक्षा का,बन के साया सदा रहता।
घर का अभिमान होता वो,घर का सम्मान होता वो,
वही पहचान है घर की,उससे ही घर सजा रहता।
पूरे परिवार का पोषण औ पालन है वही करता,
वही हर दुख में बनकरके सहारा है खड़ा रहता।
अगर वो है तो दुनियाँ की बाज़ारों में खिलौने हैं,
अगर वो है तो खुशियों का खज़ाना भी भरा रहता।
पकड़कर हाथ जो देता सहारा वो *पिता* ही है,
जहां शक्ति पिता सी हो,वहाँ फिर दुख कहाँ रहता।
कभी तन्हा भी होता है,कभी दुख से भरा होता,
छिपा लेता है अपने ग़म, किसी से कुछ नही कहता।
उसका गुस्सा भी जायजहै,उसकी हर डाट भी जायज,
क्योंकि दिल में सदा उसके,उसका परिवार है रहता ।
जो अपनी ख़्वाहिशें खोकर,हमारे सपने बुनता है,
पिता वो गर नही तो फिर भला है कौन हो सकता।
अनुजा दुबे(स्वरचित✍🏻)
(अप्रकाशित/मौलिक)
1नवम्बर2020