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आज सृजक- सृजन समीक्षा विशेषांक में मिलिये नवी मुम्बई (महाराष्ट्र) की रचनाकार सोनम जैन’ जी से। हमें आप सभी की समीक्षा की प्रतीक्षा रहेगी, अपनी प्रतिक्रिया कॉपी करके फेसबुक और वेबसाइट के लिंक पर भी जरुर डालें।
सभी मित्रों से निवेदन है कि आज पटल पर इन रचनाओं की समीक्षा के अतिरिक्त कोई भी क्रिया-प्रतिक्रिया या पोस्ट न डालें। पटल के सभी नियमों का पालन अनिवार्य रुप से करें।🙏🏼
निवेदक
संस्थापक
अन्तरा शब्दशक्ति संस्था एवं प्रकाशन
डॉ प्रीति समकित सुराना
मेरा परिचय
मेरी बच्चियों की माँ और एक पत्नी के चिर परिचित अपने ही परिचय के अलावा भी आज मेरा अपना एक परिचय है जो मुझे इस विशाल मंच पर आप सभी को देते हुए बड़ी खुशी महसूस हो रही है।
मेरा नाम सोनम जैन है । मेरी उम्र 32 वर्ष है। मुलतः पश्चिम निमाड़ के शहर खरगोन की रहने वाली हूँ। हाल फिलहाल में नवी मुंबई में निवासरत हूँ। मैं किस्मत से एक माँ और गृहणी हूँ पर कवियित्री मैं अपनी पसंद से हूँ और उस पर मुझे गर्व हैं।
शिक्षा के क्षेत्र में मैंने अपनी पढ़ाई कंप्यूटर इंजीनियर के रूप में पूरी की तत्पश्चात एम.बी.ए. किया। फिर कुछ समय एक शिक्षिका के रूप में कार्यरत रही और फिर घर गृहस्थी में ऐसे रमी कि मैंने खुद को कही खो दिया तब मुझे मुझ से वापस मिलवाया मेरी कलम ने।
साहित्य में रुचि –
हिंदी साहित्य में रुचि तो स्कूल के समय से थी पर पढ़ने तक बस लिखना मैंने शुरू किया जब मैं कक्षा 9 में थी। जो कि मैं मेरे हिंदी के आचार्य जी की आभारी हूँ कि उन्होंने मेरे अंदर छुपी लिखने की क्षमता को पहचाना और इस ओर प्रोत्साहित किया। फिर महाविद्यालय तक मैंने लिखना जारी रखा। कुछ काव्य संगोष्ठी में भाग लिया कुछ प्रतियोगिताओ में भी।
पर अब इस कोरोना ने मेरा भला किया जैसे ही लॉक डाउन लगा मुझे फिर से समय मिलने लगा और फिर बस मैं और मेरी डायरी और पेन।
सोने पर सुहागा तो तब हुआ जब मुझे संयोग से इस अंतरा शब्द शक्ति परिवार में सम्मिलित होने का सुअवसर प्राप्त हुआ और फिर तो मेरी कलम ने रफ्तार पकड़ ली।
यहाँ साँझा करने के लिए कुछ खास उपलब्धियां नही है मेरी।
बस अपने द्वारा लिखी गयी कुछ रचनाये आप सभी के सामने प्रस्तुत कर रही हूँ।
जिसमे से पहली रचना मैंने मेरी माँ को समर्पित की है जो मैंने अपने स्कूल के समय में लिखी थी।
१. माँ
सोचा माँ को उपमा दूँ ,
सोचा कि माँ को उपमा दूँ ।
तुझे यदि चंदा कहूँ ,
तो चाँद पर तो दाग है माँ ।
पर तेरी ममता में तो ,
कोई भी दाग नही है माँ ।
तुझे यदि सूरज कहूँ ,
तो वो तो राह दिखाता है ।
पर तूने मुझे हाथ थाम ,
उस राह पे चलना सिखाया माँ ।
तुझे यदि देवी कहूँ ,
वो तो देती बस वरदान ।
पर तुमने मुझे दिया है ,
सर्वोपरि ये जीवनदान माँ ।
तुझे यदि सागर कहूँ ,
तो उसका पानी तो खारा है।
पर तेरा दूध जो पिया था,
वो मिठास से भरा था माँ ।
अब समझ मे आया कि,
तेरी कोई उपमा नही है ।
क्योंकि उपमा शब्द में ही ,
छुपा हैं तेरा नाम “माँ” ।
२. रोटी
कचरे के डब्बे में पड़ी ,
लवो रोटी हमसे पूछ रही ।
किसी भूखे के हाथों में मुझे,
रख देते तो तुम्हारा क्या जाता ।!?
और…उसी रोटी को देखता ,
एक नन्हा सा बालक खड़ा ।
खाना चाहता हैं उस रोटी को ,
गंदगी में सनी रोटी पर कैसे खाता ।!?
जीवन की मूलभूत जरूरतों में यदि देखेंगे हम तो ,
रोटी का क्रम है सबसे पहले ही आता ।
और करके अनादर उसका ही भला ,
कोई इंसान चैन से कैसे है जी पाता ।
दो वक्त की रोटी खाने की खातिर ही तो ,
इंसान खुद को दिन रात है मारता जाता ।
और इतनी मेहनत से मिली है फिर भी ,
कीमत रोटी की क्यों नही जान पाता ।
किसी के पास है इतना कि खाया भी उनसे नही जाता ।
और.. कही कोई इंसान बस यूँ ही भूख से हैं मर जाता ।
यदि है पास तो दान करो यूँ न अन्न को बर्बाद करो ।
अन्नदान का महत्त्व अति प्राचीनकाल से देखा जाता ।
सोचो और पालन करो , एक दाना भी अन्न का व्यर्थ न हो पाए , क्योंकि
जितना अब तक तुमने छोड़ दिया है ना झूठा ।
उतने में तो कितनो का ही पेट भर जाता ।
खुद के लिये किया बहुत अब , परक्षुधा को एक बार शांत करो ।
खुशी मिलेगी मन को असीम सुख दिल या जाता ।
३. क्या करती हो !??
जिसकी सुबह उठते ही पहली दौड़ रसोई में होती हो ।
जिसको जो है पसंद उसे वो नाश्ता परोसती हो ।
बच्चों को स्कूल और पति को दफ्तर जाने में देर न हो ,
ये ज़िम्मेदारी भी पूरी तरह जिसके सर होती हो ।
उसे भी ये सुनाया जाता है , तुम दिनभर घर मे क्या करती हो..!
उसे ही पता होता है सब कुछ , जिस सामान की घर मे दरकार होती हो ।
छोटे से बड़ी तक कोई चीज़ ढूंढने को नाम के जिसकी हाहाकार होती हो ।
साफ , सफाई और सजावट घर की ज़िम्मे जिसके होती हो ।
मकान को घर बनाने में जिसकी मेहनत पूरी होती हो ।
उसे भी ये सुनाया जाता है , तुम दिनभर घर मे क्या करती हो..!
जो बच्चों की पढ़ाई और खेलकूद का पूरा ध्यान रखती हो ।
पड़ न जाये कोई बीमार घर मे सावधानी पूरी बरतती हो ।
खुद को हो जाये कोई दर्द या तकलीफ भी तो ,
कर किनारे उसे घर के कामो में जुटी रहती हो ।
उसे भी ये सुनाया जाता है , तुम दिनभर घर मे क्या करती हो..!
घर पर आ जाए कोई मेहमान गर , स्वागत उसका भी पूरे दिल से करती हो ।
रोज़मर्रा के कामो के साथ मेहमाननवाज़ी में भी कोई कमी न रखती हो ।
आना जाना सब जगह , नाते रिश्तेदारी भी खूब निभाती हो ।
ससुराल और मायका दोनो घर साथ मे लेकर जो चलती हो ।
उसे भी ये सुनाया जाता है , तुम दिनभर घर मे क्या करती हो..!
शौक अपने भूलकर , बच्चों के शौक पूरे किया करती हो ।
खुशियां अपनी परिवार की खुशियों में ही ढूंढ लेती हो ।
घड़ी की सुईयों में बंधे सुबह से शाम कर दिया करती हो ।
और यदि थक कर जल्दी कभी सो जाये तो फिर सुनती मिलती हो…
कि घर के काम करके कौन सा एहसान करती हो , तुम दिनभर घर मे क्या करती हो..!
यदि जाती हो दफ्तर तब भी घर के सारे काम निपटाती हो ।
सबके उठने के पहले उठती और सबसे आखिर में सो पाती हो ।
घर और दफ्तर दोनों का काम पूरी ईमानदारी से निभाती हो ।
भागते समय से तेज़ दो हाथ से चार काम निपटाती हो ।
इसके बाद भी सुनना पड़ता है कई दफ़ा ,
कि तुम आखिर घर का काम ही क्या करती हो..!
४. शब्दो का बोझ
गीली कच्ची ज़मीन पर उम्मीदों का महल खड़ा कर दिया जाता है ,
तू लड़का है हमारा बुढ़ापे का सहारा , अबोध बालक से जब ये कहा जाता है ।
वो बच्चा मासूम बचपन जीने दो उसे क्या जाता है ,
ऐसी बाते उस बालमन में बैठाकर आखिर तुम्हे क्या मिल जाता हैं ।
दुनियादारी से अनजान नाज़ुक कंधो पर बोझ डाल दिया जाता है ,
तू लड़का है कमा कर घर चलाना है तुझे , ये जब कहा जाता हैं ।
इसी बोझ के तले कभी कभी वो गलत रास्ते पर निकल जाता है ,
कामना वो भी अच्छा , मानसिक तनाव में बदल जाता है ।
भावनाओ के दरिया को बांध बना कर रोक दिया जाता है ,
लड़का होकर लड़कियों से रोता है , ये ताना दिया जाता है ।
लड़का है तो क्या रो नही सकता , रोकर मन हल्का नही कर सकता ,
अपनी संवेदनाओ को व्यक्त करने से उसे क्यों रोका जाता है ।
निच्छल खुली सोच को ऐसे ही संकुचित कर दिया जाता है ,
उम्मीद अति रख के उसे एक कदम पीछे कर दिया जाता है ।
मत दबाओ बेटे को अपने शब्दो के वजन से इतना ,
सयाना होने के पहले ये सब उसी अति समझदार बना जाता है ।
५. सागर
अर्णव , समुंदर , नीरनिधि या कहे इसे हम जलधाम ,
और न जाने कितने ही नामो से सागर जाना जाता ।
सहनशीलता , गहराई और अथाह विस्तार है इसका ,
नीले पानी की ओढ़े चादर बहुत कुछ हमें ये समझाता है ।
सहनशीलता हम सीखे सागर से , जैसे सब कुछ वो सहता जाता ,
पर सहने की भी है एक सीमा , वो साथ मे ये भी बतलाता ।
अति हो जाये जब सहने की तब प्रलय रूप वो दिखलाता ,
लहरों में लाकर भूचाल फिर से शांत वो हो जाता ।
गहराई इतनी है सागर में कि अंदर अपने सब ये समा जाता ,
कचरा अंतर्मन में नही रखना वो साथ में ये भी बतलाता ।
अति मैला हो जाए अंतर तब सफाई इसकी वक़्त मांगता ।
ला कोलाहल कर गंदगी किनारे फिर से स्वच्छ निर्मल हो जाता ।
विस्तार अथाह है सागर का नज़रे जाये जहाँ तक ये दिखता ,
इंसान की सोच भी है असीमित वो साथ मे है ये बतलाता ।
अति में सोचे यदि किसी बात को तो परिणाम विपरीत भी आ सकता ,
क्योंकि उत्पात मचाती लहरों में उसका निकटतम सब विलय पा जाता ।
सागर से हम धीर बने , गम्भीर बने और अविचल भी ।
इसकी लहरों जैसे बने जिसमे संगीत है और शोर भी ।
व्यवहार करें सागर सा जिसमे बढ़प्पन है, जो है बेपरवाह भी ।
सोच रखे सागर सी जो मर्यादित है और ऊर्जावान भी।
सोनम जैन