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आज *सृजक- सृजन समीक्षा विशेषांक* में मिलिये *कटनी (म.प्र.)* की रचनाकार *किरण मोर* जी से। हमें आप सभी की समीक्षा की प्रतीक्षा रहेगी, अपनी प्रतिक्रिया कॉपी करके फेसबुक और वेबसाइट के लिंक पर भी जरुर डालें।
सभी मित्रों से निवेदन है कि आज पटल पर इन रचनाओं की समीक्षा के अतिरिक्त कोई भी क्रिया-प्रतिक्रिया या पोस्ट न डालें। पटल के सभी नियमों का पालन अनिवार्य रुप से करें।🙏🏼
*निवेदक*
संस्थापक
*अन्तरा शब्दशक्ति संस्था एवं प्रकाशन*
डॉ प्रीति समकित सुराना
*परिचय*
श्रीमती किरण मोर
C/o श्री अमरनाथ मोर
आदर्श कालोनी,दुर्गा हास्पिटल
के पास कटनी(म.प्र.)
*प्रकाशित पुस्तकें–*
सपनों का भंवर,दिल ही दर्पण,बदलते अक्स(काव्य संग्रह)
काव्य निर्झरिणी(काव्य-संग्रह)
संस्कारों का हवनकुंड(आलेख संग्रह) शुभप्रभात, आदि कई साझा संग्रह।
पत्र पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित।
*सम्मान–*
नारी गौरव,कलमकार,अंतरा शब्द शक्ति सम्मान,रचनाकार,नारी सशक्तिकरण सम्मान कटनी
वरिष्ठ कवयित्री सम्मान कटनी
*आत्मकथ्य*
बचपन से ही पढ़ने का बहुत शौक था,घर में बड़े भाई किराए पर लाकर उपन्यास पढ़ा करते थे,और जब वो यहाँ वहाँ चले जाते तो मैं भी छुपकर पढ़ा करती,क्योंकि उनके लिए हम बच्चे थेऔर हमें उपन्यास नहीं पढ़ नी है,वैसे घर में कल्याण और नारी अंक जैसी किताबों का अंबार था हर महीने आतीं थीं जिसमें पुरानी जाबांज नारियों की कथाएँ होतीं थी,अधिकतर सतियों की कहानियां होतीं थीं वो पढ़ती थी और पढ़ कर अच्छा भी लगता कि हमारे देश की नारियां कितनी महान हैं।पर छुपकर जो मजा उन्यास पढ़ने में आता वो अलग ही होता था,वैसै भी जिस काम को करने की मनाही हो,उसे करने और देखने की उत्सुकता और बढ़ जाती है,और इस तरह पढ़ने लगे थोड़ा और बड़े हुए तो कलम भी हाथ में ले ली,पहला पत्र भाई को लिखा जो घर छोड़कर मुम्बई चले गए थे,मेरा पत्र पढ़कर लौट आए तब माता पिता और अन्य लोगों से काफी सराहना बटोरी।
इस तरह कुछ छोटी कहानी और विषय पर भतीजे-भतीजियों के लिए निबंध और पत्र लेखन से लिखने की शुरुआत हुई,जब सबको पसंद आया तो लिखने की तरफ रुझान बढा परन्तु पढाई और संयुक्त परिवार के कारण सब किनारे हो गया।
फिर शादी बच्चे जिम्मेदारियां इन सबके बीच कलम और डायरी को लगभग भूल ही गए,परन्तु बच्चों के पढ़ने और फिर जॉब के लिए बाहर निकलते पुन: हाथ में आ गई और तब से अनवरत जारी है।
*रचनाएँ*
*1–धर्म की समझ*
धर्म समझ फिर कट्टर बनना
सीख धर्म की पहले परिभाषा
स्वयं जान ले बात धर्म की
फिर करना दूजों से आशा।
किसी धर्म को अपना कर
बस उसके पीछे-पीछे भाग रहे
जिससे निभेगा धर्म जगत में
वो मानव है उसको आग लगे
इसे धर्म कहते हैं अगर,और
इसे मानना “”धार्मिक कट्टरता””है
तो समझ लें प्यारे वो धर्म नहीं
ये तो बस मानवीय बर्बरता है।
कहीं किसी संत ने नहीं लिखा
रामायण या महाभारत हो
बाइबिल, कुरान या जिनवाणी
मानवता जहां हुई आहत हो।
ये हम सबका रचाया स्वांग है
जो हम धर्म परायण बनते हैं
मानवधर्म को भूलकर,बाकी
सारी अनर्गल बातें भजते हैं।
सब धर्मों की बस एक सीख
मानव मानव से प्रेम करे
हिन्दू, मुसलमान या सिख ईसाई
उसने क्यूं न बनाए अलग देश
ये हम मिलकर मानव ही बदलें
नित नव धारण कर परिवेश
मानव धर्म की परिभाषा में केवल
सब गुण प्रेम आधारित हैं
दया, ममता, करुणा,सद्भाव, परोपकार
सृष्टि रूपी बगिया में पल्लवित हैं
ब्रम्हाण्ड रचयिता ने केवल, क्यूं
बस एक,एक बनाए ग्रह, उपग्रह
एक सूर्य और चन्द्र देखकर देवों
क्यों नहीं किया धर्म पर सत्याग्रह
उसी चांद को देख हिन्दू
करवा चौथ व्रत को तोड़ते हैं
वही ईद का चांद बन जाता,जब
मुस्लिम अपना रोजा खोलते हैं
उसी धरा से उसी गगन पर
मानव को चांद सितारे, सूरज दिखते
बस साथ खड़े मानव ही उनको
अपने धर्म के नहीं लगते
“धार्मिक कट्टरता” दिखलाओ
मानवता धर्म की बातें करके
प्रेम सिखाओ और सीखो
एक अखंड देश की ज्योति बनके।
*2–मन का मृग*
तुझमें बसी सुगंध कस्तूरी, पहचान स्वयं को
ओ रे अभागे
क्यूं पीछे मन का मृग भागे
रात सोये कल हो ना हो, सुंदर सपने पलकों पर तागे
क्यूं पीछे मन का मृग भागे
बहुत सो लिया समय गंवाया,अब भी अगर न नींद से जागे
क्यूं——
वक्त की चिड़िया जो उड़ जाए, फिर काय पछतायें लागे
क्यूं—–
किस्मत भी तब साथ है होती, वक्त संग जो चलता आगे
क्यूं—–
खींचे अपनी ओर ओ मनवा,बांधे हुए हैं मोह के धागे
*3–क्षितिज*
रात सुहानी दे गया है सूरज
संध्या तक ढलते-ढलते
एक नजर ही क्षितिज दिखा
तब मिली प्रेयसी चलते-चलते।
रोज मिलन की आस रहे
नजर चुराकर देखा करते हैं
रात चाँदनी खिले गगन
सूरज छिपता आंखें मलते
आग उगल दिन भर घर आए
रोक रास्ता कहीं खड़ी है
रहे बड़ी बेचैन करूं क्या
सर्रर निकलती ठंडक झलते
एक कभी न होना है जाने पर
फिर भी इंतजार एक दूजे का है
एक शोला है दूजी शबनम
मिलते रोज पलकों से छलते
सूरज जब आगोश समाता
अपनी निशा की ठंडक पाकर
बिन मिले अचंभा देखो रे
परवान चढ़ी मुहब्बत पलते-पलते
*4–जीवन की आस*
जाम पर जाम पी लिए हैं,
क्यूं अंधेरी आस के,
मान कर किस्मत उसे
बैठ गया है बिन प्रयास के
ढूंढने से तो भगवान भी मिलते हैं जहां में,
बिन परिश्रम नहीं हैं जाते पल कहीं संत्रास के
उन दिनों को भूल जा,
वो बीत गए हैं त्रास के
सपनों में ही खिलते हैं
फूल अमलतास के
भाग्य संग तू अपने जरा हाथों का श्रम देख जोड़ कर
तेरे हिस्से में भी आएंगे एक दिन टुकड़े उजास के।
*हिम्मत न खोना कभी* धूप छांव आनी जानी
जीवन के रास्ते होंगे कभी अंधेरे तो कभी प्रकाश के।
*5– माँ है वो*
मत्तगयंद सवैया
(१)
मातृ-छाया,में वो लिखी है,जिसके सिर छाया न आई
नौ नौ महीने,रखा उदर में,जिनकी कहलाती वो माई
दर दर भटकती है मां ये कैसी,एक निवाला, न पा पाई
इतनी बढ़ी है,उसके लिए बस,बेटे कहते मां मंहगाई।
(२)
लाड़ लड़ा वो किया करती थी स्वजनों से तेरी ही बड़ाई
जनम दिया जो तुमको,जग में ला करती , उसकी भरपाई
नित नित कोस रही है खुद को, क्यूं वह, ऐसे जग में आई
आस लगा बैठी थी जो तुमसे,अब करती है, राम दुहाई।
(३)
भारत माता के लालों ने,कैसी थी ये आन बचाई
जीती-जागती मां ने ही ,उस देश में पग पग,ठोकर खाई
रक्त का बंधन है,हुआ स्वार्थी, सबसे ज्यादा चोट है खाई
सभ्यता की पहचान है खोती,भारत मां की, हो जगहंसाई।
किरण मोर कटनी म.प्र.
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