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आज सृजक- सृजन समीक्षा विशेषांक में मिलिये संतोष मिश्रा ‘दामिनी’ (प्रयागराज) जी से। हमें आप सभी की समीक्षा की प्रतीक्षा रहेगी, अपनी प्रतिक्रिया कॉपी करके फेसबुक और वेबसाइट के लिंक पर भी जरुर डालें।
सभी मित्रों से निवेदन है कि आज पटल पर इन रचनाओं की समीक्षा के अतिरिक्त कोई भी क्रिया-प्रतिक्रिया या पोस्ट न डालें। पटल के सभी नियमों का पालन अनिवार्य रुप से करें।🙏🏼
निवेदक
संस्थापक
अन्तरा शब्दशक्ति संस्था एवं प्रकाशन
डॉ प्रीति समकित सुराना
परिचय
नाम-श्रीमती संतोष मिश्रा’दामिनी’
प्रयाग राज, उत्तर प्रदेश
पति-श्री ओम प्रकाश मिश्रा अधिवक्ता
कार्य-उपचारक,लेखन, प्रतियोगिता मे भाग लेना
पसंद-सादगी, लेखन, संगीत
स्वभाव-जिज्ञासु
कार्यरत-कई पटल पर लाईव, कई सम्मान पत्र प्राप्त किया
शिक्षा-स्नातक,
आत्मकथ्य
बचपन से अन्तर्मुखी और जिज्ञासु होने के कारण पठनीय साहित्य और लेखन में रुचि के साथ भजन गाते हुए काम करना तथा दादी की कहानियों में तल्लीनता बडो का सानिध्य प्राप्त करने की कोशिश अति प्रिय था।
रचनाएँ
1)समय के साथ बहता चल
समय के साथ बहता चल
परिश्रम का मिलेगा फल
पसीना बह रहा पल पल
पवन के साथ उङता चल
समय रात है आती
दिवा मे जलता बाती है
चरागों को तू रौशनकर
समय के साथ बहता चल
समय से फूल है खिलता
परागित मन भंवरा उडता
तितलियों की तरह चंचल
समय के साथ उडता चल
समय का दौर भारी है
समय की गति निराली है
उम्मीदों का सहारा ले
पथिक अपने पग धरता चल
2) चित्राधारित
ममतामयी कोख से मेरे
हरे भरे ये शजर उपजे
इनकी हरियाली मे रहकर
मैं धरती सजती संवरती थी
तुम मेरे मानस पुत्र दुलारे
इनको काहे काट दिऐ
दुखी किया मुझे वसनहीन कर
खुदको भी बहुत संताप दिया
इन शजरो मे प्राणवायु थी
तुम स्वच्छ वायु को पाते थे
काट के इनको ठूंठ कर दिया
ये कैसा अभिशाप लिया
बिलख रहे हैं पशु पक्षी सब
क्यों उनको सजा कठोर दिया
इन शजरो पर ठांव था जिनका
ठण्डी छांव को छीन लिया
अब सांसो के खातिर ऐसे
भटक रहे चातक जैसे
पीठ बांधे श्वास सिलेंडर
शजरो से नाता ढूंढ रहे
मै धरती सब की महतारी
क्या मानव क्या वृक्ष लताऐ
पशु पक्षी सब मित्र तुम्हारे
अब अपनी भूल कुबूल लिया
धरती मॉ।हमने अपनी भी भूल कुबूल लिया।
3) पिता****
सहते बारिश धूप, पिता जी साहस से भरपूर
सिखाते दुनिया का दस्तूर, औज से रौशन वो भरपूर
पिता का साया आशिर्वाद, वही है मेरे पालनहार
सखा बन फैलाया है प्यार,बहुत उनका हमपर उपकार
चले गए वो तो अपने धाम,करें हम हरदम उनका ध्यान
गगन से हमको रहे निहार, नहीं है हमसे अब भी अंजान
चमकते ध्रुव तारे के साथ, हम पर है उनका अधिकार
करू मैं बारम्बार प्रणाम, और कर्तव्य करूँ निष्काम
4) सहयोग बहुत जरुरी है
जीवन के उत्थान मे
खेत और खलिहान मे
एक ही मंशा मेरी है
बस सहयोग जरूरी है
कठिन डगर औ पग डगमग
फिरभी पथिक चलता है अथक
आए हैं इस दुनियां में तो करना कर्म जरूरी है
बस सहयोग जरूरी है
माना पंच तत्व का सांचा
हाण मान्स मे ढला ये ढांचा
फिर भी नश्वर जीवन में एक कामना जरूरी है
बस……
है सहयोग चांद सूरज मे
है सहयोग सांस की लय मे
माला का मनका बनकर के
प्रभु चिंतन करनी पूरी है
बस……
5) विषय-संत
विधा–मुक्त छंद
है संत वही जो ,अनंत की सोचे
रहे प्रभु ध्यान, अनेक न धावै
हो काम पुनीत, विकार रहीत
सदा शुभता मे ,ही प्राण लगावैं
जामे लोभ नहीं, और द्वेष नहीं
समता के भाव, ही सन्मुख आवै
जो हो तापस वेष,रहे न अधीर
कदाचित वो ही है, संत कहावै
सादर समीक्षा हेतु
संतोष मिश्रा ‘दामिनी’ प्रयागराज
25-6-21