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आज सृजक- सृजन समीक्षा विशेषांक में मिलिये विक्रमादित्य सिंह (भुवनेश्वर) जी से। हमें आप सभी की समीक्षा की प्रतीक्षा रहेगी, अपनी प्रतिक्रिया कॉपी करके फेसबुक और वेबसाइट के लिंक पर भी जरुर डालें।
सभी मित्रों से निवेदन है कि आज पटल पर इन रचनाओं की समीक्षा के अतिरिक्त कोई भी क्रिया-प्रतिक्रिया या पोस्ट न डालें। पटल के सभी नियमों का पालन अनिवार्य रुप से करें।🙏🏼
निवेदक
संस्थापक
अन्तरा शब्दशक्ति संस्था एवं प्रकाशन
डॉ प्रीति समकित सुराना
परिचय
नाम – विक्रमादित्य सिंह
पिता – स्वर्गीय धर्मजीत सिंह
शिक्षा – स्नातकोत्तर
पद – वरिष्ठ अनुभाग अधिकार
कार्यस्थल – पूर्व तट रेलवे/भुवनेश्वर
साहित्य क्षेत्र में कार्य
1.पूर्व तट रेलवे के विभिन्न कार्यक्रमों में, कई अवसरों पर उद्घोषक की भूमिका।
2.भारत संचार निगम लिमिटेड, भुवनेश्वर द्वारा आयोजित काव्य सम्मेलन में अतिथि सह जज की भूमिका।
3.पूर्व तट रेलवे के राजभाषा विभाग द्वारा क्षेत्रिय स्तर पर आयोजित विभिन्न काव्य सम्मेलन में कवि के रूप में अपनी स्वरचित कविता का पठन।
4.रेलवे बोर्ड एवं पूर्व तट रेलवे के विभिन्न मासिक पत्रिका, तिमाही पत्रिका और वार्षिक पत्रिका में पिछले 6 वर्ष से अनगिनत कहानी, कविता एवं लेख का प्रकाशन।
सम्मान
1.भारत संचार निगम लिमिटेड भुवनेश्वर द्वारा युवा कवि अतिथि सम्मान।
2.रेलेवे बोर्ड द्वारा अखिल भारतीय स्तर पर आयोजित रेल यात्रा वृतांत पुरस्कार।
3.राजभाषा विभाग/पूर्व तट रेलवे द्वारा आयोजित विभिन्न प्रतियोगिता जैसे, कहानी लेखन, निबंध लेखन एवं कविता लेखन में उत्कृष्ट लेखक/कवि से सम्मानित।
आत्मकथ्य
कहानियाँ पढ़ने का शौक बचपन से ही था और यह शौक चाचा चौधरी और साबू (काँमिक्स), नंदनवन और चंपक (बालकहानी पत्रिका) से आया। दशवी तक मैंनें मुंशी प्रेमचंद जी, शरतचंद्र जी और सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी की कहानी और उपन्यास को जी भर के पढ़ा, और वहीं से छोटी-छोटी कहानी लिखने का शौक शुरू हुआ। उस वक्त तक कविता समझ में कम आती थी या यूँ कहें कि आती ही नहीं थी। कॉलेज के दिनों में टूटा-फूटा शेर लिखा करता था, जिसे खुद ही लिखा और खुद ही पढ़ा। कॉलेज में ही एक मित्र ने मुझे हरिवंश राय बच्चन जी की मधुशाला पढ़ने के लिए दिया। पढ़ा…एक बार, दो बार, तीन बार…..बस पढ़ता ही गया। क्या समझा, कितना समझा मालूम नहीं, बस पढ़ता ही गया। उसके बाद अमृता प्रीतम जी और महादेवी वर्मा जी कि बहुत सी कविताएं पढ़ा। धीरे –धीरे कविताएं अंतस में बैठती गई और अंतस के भाव जब शब्द रूप लेने लगे तो छोटी-छोटी कविता लिखने लगा। बीच में लिखना और साहित्य पढ़ना बंद हो गया क्योंकि बेरोजगारी चिढ़ा रही थी और जॉब समर्पण मांग रहा था। तब सब कुछ छोड़ कर जुट गए एक नौकरी के लिए। अंततः मेहनत सफल रही और हम हो गए भारत सरकार के मुलाजिम। जॉब के दौरान राजभाषा विभाग से जुड़ना मेरे लिए वरदान साबित हुआ। मैं फिर से कविता/कहानी से जुड़ गया। लोगों ने पसंद किया तो लिखने की हिम्मत और बढ़ी। इसी बीच आदरणीय दिनेश देहाती जी से एक कवि सम्मेलन में मुलाकात हुई। उन्होंने फिर मुझे अंतरा शब्द शक्ति परिवार से मिलाया। इस मंच से जुड़ कर लिखने की गति बढ़ गई साथ ही विभिन्न विषयों पर कविता और लेख पढ़ने के लिए मिला जिसने मेरी गुणवता में और निखार लाया। मैं अभी अपनी साहित्यिक यात्रा के शुरूआती दौर में ही हूँ, ऐसा मुझ लगता है। मुझे आगे बढ़ने के लिए, पहचान बनाने के लिए आप सभी गुणीजनों का आर्शिवाद मिलें, आप सब के शुभकामनाओं की प्रतीक्षा में।
रचनाएँ
1.युवा शक्ति
तुम राज्य हो, तुम राष्ट्र हो, तुम युवा हो, तुम शक्ति हो
तुम जन-जन हो, तुम कण-कण हो, तुम संतरी हो, तुम मंत्री हो।
प्रगति का उपासक हो, उन्नति की एक धारा हो
आर्य धरा पर जड़ भी तुम हो और भविष्य का फल भी हो।
तुम ही संस्कृति, तुम ही सभ्यता, तुम ही अलौकिक दीप हो
भटका जो राह से, तुम भ्रष्टाचार, दुराचार और अंधकार हो।
तुने सिकंदर को लौटाया, गजनी को कई बार हराया
गौरी तुझसे ही मात खाया, गोरे जिससे डरे, तुम वो बोस हो।
तुम दशमलव, तुम शून्य, तुम टैगोर, तुम रमन, तुम ही विवेकानंद हो
तुम शिवा जी महाराज, तुम राणा प्रताप, तुम ही सुखदेव, राजगुरू, भगत हो।
तुम कलाम का मिसाईल हो, तुम दिनकर का हूंकार हो
तुम अटल सत्य हो पोखरण का, तुम कारगिल विजय हो।
देश भक्ति के भाव लिए जब, अपनी मुट्ठी एक करते हो
दुश्मन की सांसे जकड़ती, उसके लिए तुम महाकाल हो।
युवा निर्णायक राष्ट्र क्रांति के, मिलकर तिरंगे की शान गढ़े
युवा शक्ति है राष्ट्र गौरव के, दृढ़ संकल्पित स्वाभिमान रचें।
धरती से अंबर तक लाली, युवाशक्ति हो शक्तिशाली
खंड-खंड नहीं कर सकता कोई, तुम अखंड भारत हो।
तुम राज्य हो, तुम राष्ट्र हो, तुम युवा हो, तुम शक्ति हो
तुम जन-जन हो, तुम कण-कण हो, तुम संतरी हो, तुम मंत्री हो।
निर्भाया घटना से दुखी होकर सभ्य समाज से कुछ प्रश्न पूछती मेरी कविता
2.यक्ष प्रश्न
समाज कहता है
निर्भया महफूज रहेगी
घर में, दरवाजों में
घूँघट में, नकाबों में
मैं पूछता हूँ इस सभ्य समाज से
बता द्रौपदी कहाँ लुटी थी
घर में या बाजारों में
दिन में या अंधियारों में
सन्नाटों में या महफिलों में
बता द्रौपदी कहाँ लुटी थी
घर में या बाजारों में।
मान-मर्दन किया था किसने
लहुलुहान किया था किसने
अपनों ने या बेगानों ने
बता द्रोपदी कहाँ लूटी थी
घर में या बाजारों में।
भरी सभायें मौन खड़ी थी
शमशीरें शर्मशार पड़ी थी
और उसको बर्बाद किया था
अपने ही रिश्तेदारों ने
बता द्रौपदी कहाँ लुटी थी
घर में या बाजारों में।
तुम कहते हो
उसके कपड़े ऐसे वैसे थे
मैं पूछता हूँ
तुम अपनी गंदी नजरों से पूछों
वो कैसे-कैसे थे….
दूध-मुहीं बच्ची में तुमको यौवन दिख जाता है
तेरे कलंकित कार्यों से माँ का दामन सूख जाता है
शर्म नहीं आती खुद को मर्द कहलाने में
खींच आँचल नारी का तुम मर्द कहलाते हो
और अपनी नीचता पर पुरुषार्थ दिखलाते हो
याद रखो-याद रखो कहीं वो दिन ना आ जाये
जब नारी अपनी कोख में
मर्द रखने से इनकार कर जाये।
निर्भया जैसी घटनाओं पर मोमबती जलाने वालों
और तमाशा का हिस्सा बन गली-गली घूमने वालों
अपने अंदर के राक्षस को क्या पहले तुमने मारा है
किसी निर्भया की रक्षा को क्या कभी कदम बढ़ाया है
दुर्घटना के होने पर शोक मनाने से कुछ नहीं होगा
भेड़ रूपी भेड़ियों को पहचानना और लड़ना होगा
लड़ना होगा उन हाथों से जो बहन-बेटियों को घेरे
लड़ना होगा उस दानव से जो निर्भाया का दामन चीरे।
जो निर्भाया का दामन चीरे।
3.हमारी चिट्ठीयां
इस तकनीक के जमाने में खो गई हमारी चिट्ठीयां
आते ही मोबाईल, इमेल, खा गई हमारी चिट्ठीयां।
बैचानिया, वो कशीश और वो शोखियां
जींदा रखती थी हमारी चिट्ठीयां।
यह सच है कि, एक दिन में, कई बार बदलती डीपीयां
लेकिन एक-एक हर्फ में, तवस्सुम दिखाती थी हमारी चिट्ठीयां।
भावना शून्य शब्दों से भरा रहता यहाँ इनबाँक्स है
पढ़ते हैं डिलिट करते रहते हैं
जीवंत गाथा सुनाती थी हमारी चिट्ठीयां।
पास होकर भी दूरियां बढ़ाती तकनीक है
घर एक है पर दिल अपनों से दूर है
दूरियां मिटाती थी हमारी चिट्ठीयां।
सच है कि तकनीक ने आसां कर दी हमारी जिंदगी
पर मिलकर भी मिलती कहाँ है जिंदगी
तन्हा दिलों में आस जगाती थी हमारी चिठ्टीयां
बैचानिया, वो कशीश और वो शोखियां
जींदा रखती थी हमारी चिट्ठीयां।
4.शब्द ही परिचय है
शब्द मेरा कभी मनोरम कभी शब्द सख्त हो जाये
कभी शब्द है राणा मेरा कभी शब्द जयचंद हो जायें
हसिनाओं से बात करें तो शहद सा मीठा हो जाये
और बीबी जो सामने आते ही शब्द मेरा बौना हो जाये।
स्वाभिमान पर आ जायें तो पद्मीनी जौहर दिखलाएं
स्वार्थ में जो उलझे, कोठों की रौनक हो जाये।
कभी राष्ट्र से प्रेम करे, दिन-रात करें गुणगान करे
सियासत में जब रंग जाए तो देश को हासिए पर लाये।
प्रेम करे जो निश्चल मन तो रोम-रोम मीरा हो जाए
जुंबा पर जो बैठे मंथरा शब्द मेरा कैकेयी हो जाये।
छंद रचे, चौपाई साजे कभी रूबाईयां संग हो जाये
कभी कबीरा की उलटी वाणी कभी दिनकर की हुंकार हो जायें।
सबा बलरामपुरी जी की एक गजल “नफरत बुरी बला” से प्रभावित होकर एक पैरोडी लिखने की कोशिश।
5.इज्जत जो चाहते हो तो इज्जत किया करों
गर जिंदगी मिली है तो कुछ नेकियां किया करों..2
इज्जत जो चाहते हो तो इज्जत किया करों…2.
दुनिया की भीड़ है और चलना है दोस्तों-2
जल्दी का सफर है तो अकेला चला करों….2
मुमकिन है जीत जाये हम बाजी ये दोस्तों
पर झुकी हुई गर्दन पर ना खंजर धरा करों….2
मुश्किल जहां है और सब परेशान है दोस्तों
मौका जो गर मिले तो हिम्मत दिया करों…2
दिल के रिश्तों को ना दिमागों से तुम छेड़ो
करना है मुहब्बत तो दिल से किया करों…2