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आज *सृजक- सृजन समीक्षा विशेषांक* में मिलिये *नमिता दुबे,नोएडा* जी से। हमें आप सभी की समीक्षा की प्रतीक्षा रहेगी, अपनी प्रतिक्रिया कॉपी करके फेसबुक और वेबसाइट के लिंक पर भी जरुर डालें।
सभी मित्रों से निवेदन है कि आज पटल पर इन रचनाओं की समीक्षा के अतिरिक्त कोई भी क्रिया-प्रतिक्रिया या पोस्ट न डालें। पटल के सभी नियमों का पालन अनिवार्य रुप से करें।🙏🏼
*निवेदक*
संस्थापक
*अन्तरा शब्दशक्ति संस्था एवं प्रकाशन*
डॉ प्रीति समकित सुराना
*परिचय*
नाम – नमिता दुबे
पति- अवनीश दुबे
शहर- नोएडा
शिक्षा- एम ए समाजशास्त्र, डिप्लोमा ऑफ बिजनेस मैनेजमेंट,
हाबी – पेंटिंग, लिखना पढना,घूमना
*आत्मकथ्य*
बचपन के दिनों में घर में अनेक न्यूजपेपर और मैग्जीन आती थीं। पहले फोटो देखना अच्छा लगता था फिर शब्दो को जोड़कर कर पढ़ने की कोशिश करी । बच्चो की पत्रिकायें चंपक, लोटपोट, नंदन, पराग इत्यादी पढ़ना शुरू की । धीरे-धीरे पढ़ने की आदत बनती गयी।
फिर, मन में आए भावों को लिखने लगी। लिखना खुद को अभिव्यक्त करने का माध्यम बनता गया। कुछ पेपर में रचनायें छपी तो लिखने के प्रति उत्साह बढ़ गया। स्नातक के बाद स्नातकोत्तर के साथ जाॅब भी करने लगी। एक कम्पनी में ‘पी-आर-ओ’ के पद पर। लिखना बदस्तूर जारी रहा।
बाद में एल-एल-बी में एडमिशन ले लिया। उसी समय विवाह हो गया। पतिदेव तेलंगाना के एक रिमोट एरिया में पोस्टेड थे। सब छोड़ वहां चली गई। कुछ समय नयी परिस्थिति में ढलने में लगा। लिखने-पढ़नेे पर भी विराम लगा।
जिंदगी एडजस्ट हो ही रही थी कि जिम्मेदारी की आहट सुनाई दी। पति देव हमें घर छोड़ गये। मायका-ससुराल एक ही शहर में था। एल-एल-बी का सेंकड ईयर भी चल रहा था, पहला पेपर बाईस अप्रेल को था और संयोगवश उसी दिन मेरी बेटी का जन्म हुआ। चार साल बाद दूसरी बेटी आई और जीवन में पूर्णता आ गई।
दोनों के साथ, समय पंख लगाकर उड़ने लगा। लिखना पीछे छूट गया परन्तु पढना जारी रहा। जब बच्चे थोडे बड़े हुए तो थोड़ा-बहुत लिखना पुनः आरम्भ किया। बड़ी बेटी सोम्या अक्सर मेरा लिखा सहेज लेती थी ।
जब वो बी टेक फस्र्ट ईयर में थी तो हैदराबाद में कुछ ग्रुप से जुड़वा दिया। “क से कविता “, “कादम्बिनी क्लब”, और कुछ ऑनलाइन ग्रुप से भी संबंध जुड़ा “गजल संध्या”, “साहित्य सेवा समित”, “अंतरा शब्दशक्ति” इत्यादी भी कई सामाजिक और धार्मिक संस्थाये से जुड़ी। लेखन ने रफ्तार पकड़ ली। पढ़ती तो थी पर कलम छोडे 20 वर्ष गुजर चुके थे। माहौल और हालात सब बदला हुआ।
पुनः साहित्य से जुड़कर प्रसन्नता हुई। ऑनलाइन भी लिखना शुरू किया ।धीरे-धीरे सहजता आती गई। सारा श्रेय मेरी प्यारी सोम्या को जाता है। वो स्वयं भी बहुत अच्छी पेंटर और कवियत्री है। बस और आप सब साथियों का साथ है जो प्रेरणादायक औषधी का काम करता है।🙏
*रचनाएँ*
1)
*मार्ग*
सुनो!
मन के आले में
कुछ जाले लग गये थे
मैंनें बुहार; धो-पोंछ लिए।
अब कुछ यादों की धूल झाड़,
उन्हें नवीन स्वरूप में सजा
फिर से सहेजना चाहती हूं…
मालूम है; मार्ग बहुत ही दुर्गम है
पर तुम साथ हो ना,
कोई डर नहीं।
बस यूं ही गलतियों पर टोकते रहना…
आगे यादों का भयानक जंगल है
कई रास्ते दिख रहे है,
तुम बोलो कहां चलना है?
बचपन की सुहावनी यादें
या फिर व्यस्तता भरे दौर की
व्यवहारिक बातें?
चलो जहां मन है।
तुम कहां जा रहे हो?
हां, सच है!
बचपन तो हमने
अलग-अलग ही जिया है,
युवाकाल से संग हैं
वहां से एक सी ही यादें हैं, बाते हैं…
रूको!!!
बचपन की राह नहीं
हम जुदा हो जायेंगें
हाँ, यौवन में…
तब से,
जब से हम संग है।
एक ही रस्ते के साथी
एक से सुख-दुख
भावनाओ-एहसासो के साक्षी।
तुम्हारी मुस्कराहट ने बता दिया
तुम भी यही चाहते हो।
आदत जो बन चुके है हम
एक दूसरे की
एक राह
एक ही समय
एक ही जीवन
एक दूजे संग
कभी ना खत्म होने वाली राह पर…
2)
*बौना*
कौन कहता है
“गागर में सागर भर नहीं सकता “
बालकनी या छत पर बगीचा
बन नहीं सकता?
वो देखो, सिमट आये
विशाल दरख्त गमलो में…
प्रकृति के संग जीने का
ये भी एक तरीका है…
विशाल वृक्षों को
बौना बना गमलों में सजाना…
क्या हुआ????
बरगद,पीपल,नीम
अमरूद,आम,सन्तरा
एक प्लेट में सजे है।
कैसे भी रहे,
हमारे पास तो बसे है।
गुण-धर्म में मूल की काॅपी है
बस आकार में छोटे…
बदलाव के साक्षी हैं!
3)
*नया संसार*
आँख खुली तो दर्द हुआ
मिला आभास मैं जिंदा हूं,
याद नहीं कुछ भी मुझे
ऐ जीवन, तुझपे शर्मिन्दा हूं!
झलक सी दिख रही है एक,
दूर कहीं कुछ धुंधली काया,
जलती देह और वैराग्य,
स्पष्ट नहीं है माया की छाया।
महामारी की क्रूर मुस्कान
निगल मेरा सब कुछ गई,
सप्ताह भर में सब खोया
बिमारी अपनों को लील गई।
जब तक समझा, लुट चुका था
जीवन भुवन ढह चुका था।
जिंदा हूं तो क्यों? जानू न
पूरा का पूरा टूट चुका था।
यूं लगा नाक में कुछ है
आक्सीजन की नली पड़ी थी,
अपनों का दर्द-संघर्ष आया याद
लगा मौत सामने खड़ी थी।
आस-पास हर आँख थी भींगी
सबने कुछ ना कुछ खोया था,
हर घर में था मौत का मातम
हर कोई अपनों पे रोया था।
ठीक हुआ, निपट अकेला था
मैंनें था जीवन आधार गंवाया,
अब विकल करती हैं वो यादें
जिन्हें था मन में बसाया।
सोचता खुद को मिटा क्यूं ना दूं?
एक दिन घंटी बजी और ध्यान भटका,
एक पुलिस वाला और नर्स खड़े थे
देख साथ दो बच्चे, लगा एक धक्का।
बिना भूमिका बोले वो,
“आपने सभी अपनों को है खोया
हम हैं आपके दर्द के साक्षी
इन बच्चों ने भी है सबको खोया।
दादा-दादी, माता-पिता
अन्य सभी रिश्तेदार,
अब ये भी आपकी ही तरह
हैं बिना आधार।
आप यदि चाहें तो, ये बेसहारा न रहें
इनमें आपके बच्चों की छाया
आपको मिल जाएगी, और इन्हें
मिलेगी आप में पिता की छाया।
एक उद्देश्य की पूर्ति हेतु
जीवन अबाधित चलने लगा,
बच्चों की किलकारियों से
मेरा नया संसार खिलने लगा।
4)
*मन दर्पण उजलाओ रे*
धूल जमी है आत्मा पर
अपना सत्य स्पष्ट नहीं,
मन का दर्पण धुंधला है
अपना अक्स स्पष्ट नहीं,
क्या करें, क्या न करें
राहों में गतिरोध है,
मन को भटका दे जो
वो सुनहरे अवरोध है।
धो-पोंछ देह सजाई
धारण किए नवीन वस्त्र,
पर मन का दर्पण पोंछ सके
न है एसा काई शस्त्र।
बहुत हुआ अब तो चेतो
मन दर्पण उजलाओ रे,
स्पष्ट होगा जीवन सत्य
कदमों को न भटकाओ रे!
5)
*बदलाव*
बहुत दिनों बाद
मैं घर आई,
बदले हुए अजीब हालात पाई,
मेरे हाथों से सजा-संवरा था घर
अनायास सब बदल सा गया!
ये फेरबदल कैसा ???
मुझे नीला रंग पसंद नहीं
फिर ये सोफा कवर, पर्दे, चादर
सब नीले क्यूं?
किसने किया ये बदलाव?
अ …रे मेरे पति नवीन इतने उदास क्यूं हैं ,
ये…..औरत कौन है?
मेरे बेडरूम में क्या कर रही है?
सीधे जा कर मैं उसके सामने खड़ी हुई,
पर वो मुझे अनदेखा कर
नवीन के पास जा कर बैठ गई।
“ये क्या बदतमीजी है!”
कंठ फाड़कर मैं चिल्लाई
पर !!!! ये क्या,
किसी ने ध्यान ही नहीं दिया।
नवीन संज्ञाशून्य से बैठे रहे,
मैंनें उन्हें हिलाया।
अचानक सामने लगे
आईने पर निगाह गई,
उसमें नवीन और वो औरत दिख रहे थे
पर मैं ???
भाग कर मैं दर्पण के पास गई
मैं कहीं नहीं थी!!!
अर्थात मैं ………
अशरीरी थी…
अचानक कुछ याद आया,
हाँ, हम घूमने गये थे नैनीताल।
लौटते में वो दुर्घटना,
वो अस्पताल का वार्ड
फिर सब धुंधला हो गया।
मैंनें कैलेन्डर पर निगाह डाली
आज दो जून था
दुर्घटना हुई थी
ईक्कतीस दिसम्बर को।
सब समझ आ गया,
परिवर्तन दहला गया।
मेरे स्थान पर उत्पन्न शून्य को,
लेखा, नवीन की नई पत्नी
भरने लगी थी।
और …सत्य का बोध होते ही
मेरी छवी धूमिल हो,
प्रकृति में विलीन होने लगी…
नमिता दुबे