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आज *सृजक- सृजन समीक्षा विशेषांक* में मिलिये *डॉ. आशु जैन, जबलपुर* जी से। हमें आप सभी की समीक्षा की प्रतीक्षा रहेगी, अपनी प्रतिक्रिया कॉपी करके फेसबुक और वेबसाइट के लिंक पर भी जरुर डालें।
सभी मित्रों से निवेदन है कि आज पटल पर इन रचनाओं की समीक्षा के अतिरिक्त कोई भी क्रिया-प्रतिक्रिया या पोस्ट न डालें। पटल के सभी नियमों का पालन अनिवार्य रुप से करें।🙏🏼
*निवेदक*
संस्थापक
*अन्तरा शब्दशक्ति संस्था एवं प्रकाशन*
डॉ प्रीति समकित सुराना
उपाध्यक्ष
अन्तरा शब्दशक्ति संस्था
पिंकी परुथी अनामिका
*परिचय-*
नाम- डॉ. आशु जैन
पति- श्री अमित नौगरैया
माता- श्रीमती उषा जैन
पता- 22/24 आसमानी माता मंदिर, हनुमान चौक, न्यू रामनगर, अमखेरा, धनी की कुटिया अधारताल जबलपुर म.प्र. 482001
मोबाइल- 9479641344
ईमेल- jainashu676@gmail.com
कार्यक्षेत्र- समन्वयक, वाणिज्य विभाग, संत अलॉयसियस महाविद्यालय, जबलपुर
*सम्मान*- सर्वश्रेष्ठ विद्यार्थी सम्मान ( मानकुंवर बाई कॉलेज)
AIACHE द्वारा नवीन लेखक सम्मान
शब्द कोविद सम्मान, कलम के सिपाही सम्मान (दोनों अंतरा द्वारा)
*प्रकाशन*- 3 किताबें जल प्रबंधन पर, 2 किताबें पर्यटन पर,
मौन के गीत, आपातकाल में सृजन फुलवारी (जो कि अन्तरा शब्द शक्ति प्रकाशन के वर्ल्ड रिकॉर्ड का एक हिस्सा है)
*सृजन का जीवन मे महत्व*- जब कभी मन बेचैन हो, अजीब सी सुगबुगाहट हो तकलीफ हो या घबराहट हो तो सृजन जैसे सारी परेशानियों को घोल कर पी जाता है और मेरा एक एक लम्हा रोशन सा हो जाता है। मेरे जीवन का एक अटूट हिस्सा है सृजन अगर ये नहीं तो मैं भी नहीं। एक यही तो समय होता है जब मैं खुद से रूबरू होती हूं, औरों के लिए तो हर वक्त जिया जाता है लिखने से कुछ समय खुद के लिए भी जी लेती हूँ। मन की सारी बातें तो नहीं कही जा सकती लेकिन लिखकर खुद को संतुष्ट अवश्य किया जा सकता है और इसीलिए सृजन मेरे लिए अत्यंत आवश्यक है क्योंकि इसके बिना जीवन अधूरा सा हो जाता है।
*रचनाएँ-*
*1)क़ानून/ विधान*
एक दिन मैने कानून को
कटघरे में खड़ा पाया
हाथों में लाठी थी
और थी जर्जर काया
अपनी हालत और हालात पर
बहुत था वो पछताया
उसकी अवस्था देख के
मुझे भी रोना आया।
बहुत था लाचार और
बेतहाशा था दुखी
उसके होते हुए भी नही थी
देश की बेटी सुखी
काँप रहा था कानून,
रो रहा था विधान
पूछ रहा था कैसे बचाये ,
बेटियों का सम्मान
उसके मन में उठ रहा था
प्रश्नों का तूफान
सबसे पहला प्रश्न था,
कैसे बनाये इंसान को इंसान?
बन गया था मख़ौल वो
और नेताओं का खिलौना
उसकी आँखों में थी पट्टी,
और किस्मत में सोना
देख कर भी सबकुछ वो
चुपचाप पड़ा था
अंतिम सांसे गिनता,
वो मौत से लड़ा था
बोला, बेटा ! आजाद तो हो गये तुम
लेकिन मैं पराधीन हो गया
अपनों से ही हारकर
मैं उनके अधीन हो गया
अब तुमसे है उम्मीद,
आजादी का दिया जलाओगे
खुद को तो आजाद कर लिया,
मुझे भी बेड़ियो से मुक्त कराओगे।
*2)काजल*
आज फिर उसने आंखों में काजल लगाया
सूजी हुई आंखों को बखूबी छुपाया,
लगाई फिर उसने अपने होंठो पे लाली,
अपनी बदकिस्मती कुछ ऐसे छिपाली,
गालों पर अपने थोड़ा पाउडर भी मला,
ऐसे ही तो रोज उसका जीवन चला,
फिर उसने हाथों में मेहंदी रचाई,
‘नील’ को ‘लाल’ से ढकने की कला है पाई
और अंत में उसने लपेटी रेशमी साड़ी,
यूँ ही चला ली अपनी गृहस्थी की गाड़ी,
सर से पाँव तक उसने कर लिया श्रृंगार,
मुस्कुरा कर उसने इसी तरह जख्म छिपाये हर बार।
*3)ममता:*
शख्सियत एक, रूप अनेक
माँ तू सबसे निराली है,
तेरे संग ही होली मेरी,
संग तेरे ही दीवाली है।
बस दो आंखे हैं माँ तेरी,
लेकिन संसार बसा इनमें
पाँव तेरे हैं मेरा बसेरा,
मेरा स्वर्ग बसा जिनमें।
दिल भी तेरा बस एक ही है माँ,
कितना प्यार लुटाती हो,
सौ जन्मों तक चुका न पाऊँ,
ये ममता कहाँ से लाती हो?
हाथ भी तेरे दो ही हैं माँ,
कितना बोझ उठाती हो,
देवी माँ के आठ हाथ है
तुम दो से सब कर जाती हो।
धरती जैसी सहन शक्ति माँ,
नदिया जैसी निश्छल हो,
जब भी लूँ मै सांस आखिरी,
हाथ में तेरा आँचल हो माँ
हाथ में तेरा आँचल हो।
*4)झूठ / धोखा/ फरेब*
वो प्यार नहीं था धोखा था
जिससे मैं तुमसे छली गई
मेरे हाथों से रेत की तरह
ज़िन्दगी फिसलती चली गई।
जिस दिन तुमने अपनाया था
मैने सर्वस्व लुटाया था
जब हाथ छोड़ मुस्काये तुम,
मैं हाथ जोड़ कर चली गई।
जब प्रेम प्रतिज्ञा साधी थी
हम दोनों साध्य थे साक्षी थे
तुमने तोड़ी सारी कसमें
मैं कसमों में बंध चली गई।
झूठे प्यार की थी बगिया
दो फूल खिल गए पर सच्चे
तुमने उजाड़ दी वो बगिया
मैं फूलों को ले चली गई।
अब जीवन की इस पारी में
यादें कुछ धुंधली धुंधली हैं
उन फूलों के स्नेह तले
मैं तुम्हें भूलती चली गई।
*5)क्रोध/ग़ुस्सा*
धधक रही है ज्वाला अंदर
ख़ुद को कैसे समझाऊँ मैं
या तो शिव नीचे आ जाए
या शिव ही हो जाऊँ मैं ।
बढ़ता जाए अत्याचार
देखूँ बेबस हो लाचार
कैसे उन बदमाशों का
संहार करूँ शांति पाऊँ मैं
या तो शिव नीचे आ जाए
या शिव ही हो जाऊँ मैं ।
चारों ओर है हाहाकर
नन्ही कलियाँ करें पुकार
कैसे उन छोटी कलियों का
दामन आज बचाऊँ मैं
या तो शिव नीचे आ जाए
या शिव ही हो जाऊँ मैं ।
क्रोध से मेरे नेत्र जले
ज़हर पिलाने हाथ बढ़े
लगता है अब तांडव करके
धरती पूरी हिलाऊँ मैं
या तो शिव नीचे आ जाए
या शिव ही हो जाऊँ मैं ।
शहीद हमारे अमर रहें,
अब आतंकी बलि चढ़ें
क्यों न उनकी भस्म बनाकर
अपने तन को सजाऊँ मैं
या तो शिव नीचे आ जाए
या शिव ही हो जाऊँ मैं ।
डॉ आशु जैन