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आज *सृजक- सृजन समीक्षा विशेषांक* में मिलिये *बबिता कंसल, दिल्ली* जी से। हमें आप सभी की समीक्षा की प्रतीक्षा रहेगी, अपनी प्रतिक्रिया कॉपी करके फेसबुक और वेबसाइट के लिंक पर भी जरुर डालें।
सभी मित्रों से निवेदन है कि आज पटल पर इन रचनाओं की समीक्षा के अतिरिक्त कोई भी क्रिया-प्रतिक्रिया या पोस्ट न डालें। पटल के सभी नियमों का पालन अनिवार्य रुप से करें।🙏🏼
निवेदक
संस्थापक
अन्तरा शब्दशक्ति संस्था एवं प्रकाशन
डॉ प्रीति समकित सुराना
उपाध्यक्ष
अन्तरा शब्दशक्ति संस्था
पिंकी परुथी अनामिका
परिचय-स्वपरिचय
वार- बुधवार
––———
नाम -बबीता कंसल
माता ,प्रतिभा रानी
पिता -धर्मेंद्र मोहन
जन्म स्थान – जानसठ (मुजफ्फर नगर )
पति -पंकज कंसल
शिक्षा एस .डी .डिग्री .मुजफ्फरनगर
शिक्षा M.A – अर्थशास्त्र,इतिहास
विधा -सभी गद्य, पद्य, संस्मरण लेख, आलेख, लघुकथा, कहानी, कविता।
प्रकाशित रचनाए- भोपाल लोकजंग, साझा काव्य संग्रह अन्तरा शब्द शक्ति, अन्तराशब्द शक्ति मासिक साझा संग्रह, अन्तरा शब्द शक्ति कविता संग्रह, वर्तमान अंकुर दैनिक समाचार पत्र, हिन्दी मैट्रो दैनिक पत्र, अमर उजाला, पत्रिका स्पंन्दन मानसिक पत्रिका, दिन-प्रतिदिन दैनिक समाचार पत्र, जय विजय मासिक पत्रिका और अनुभव पत्रिका, प्रखर गुंज मासिक पत्रिका जय नदी जय हिन्द पब्लिकेशन,
इन्दुमति लघुकथा ब्लॉग पर निरंतर मासिक लघुकथा प्रकाशित।
लघुकथा मोमस्प्रेसो, स्टोरी मिरर, प्रतिलिपि, अनेक ईपुस्तकों मे प्रकाशित। मेरी प्रकाशित अनेक लघुकथा है। जिनमे से प्रमुख हैं। राशन, नन्ही कली, महिला सशक्तिकरण, तुलसी का बिरवा, संयुक्त परिवार, रोडरेज।
प्राप्त सम्मान-
भारतीय लघुकथा मंच पर फादर्स डेरत्न, लघुकथा दिवस रत्न, कोरोना योद्धा रत्न।
स्टोरी मिरर पर अनेक कहानी कविता लेखन सम्मान,
मोम्सप्रैसो हिन्दी लेखन सम्मान।
वर्तमान अंकुर -लेखक सम्मान।
जय नदी जय हिन्द स्वच्छ भारत अभियान- सम्मान पत्र।
आत्मकथ्य
मेरा जन्म उ०प्रदेश मे हुआ। हमारा संयुक्त परिवार था जिसमें सभी बच्चों के पढाने लिखाने पर बहुत प्राथमिकता दी जाती थी। बचपन में मेरे पिताजी अनेक कहानियों की पुस्तक लाकर देते थे।पुस्तक पढते पढते कब मेरे मन में उठने वाले भावों ने मेरे हाथ मे कलम पकड़ा दी पता ही नही चला।
बचपन से हीअपने शब्दो को कापी के पीछे पन्नों, टेबल के कोनो, पुस्तक के पीछे कलम से समेटती, बिखेरती रही। पन्नों ने डायरी का रूप ले लिया।
संवेदनशील मन अपने आस पास, घटनाओं से अंतर्मन मे उठने वाले भावो को शब्दों में पन्नो पर उकेर देती थी।
आदरणीय प्रीति जी का आत्मीय अभिवादन जिन्होंने नकारात्मक माहौल कोरोना महामारी की इस आपदा मे सकारात्मकता के साथ प्रयास कर, कुछ मेरे बिखरें पन्नों को सहेज, सजा संवार कर पुस्तक का रूप दिया। मै तहेदिल से आभारी हूँ अन्तरा शब्द शक्ति परिवार और आदरणीय प्रीति जी का आत्मीय अभिनंदन आपातकाल में सृजन फुलवारी में स्वंय को पाकर मन प्रसन्नता से भर गया। फुलवारी काव्य संग्रह से मेरी कुछ रचनाएं आप सब के समक्ष प्रस्तुत है।
1-मै नारी, मै मां
मै नीर भरी दुख की बदली
कभी दुर्गा , कभी काली
कभी गृहलक्षमी , कभी कोमल कली
जाने कितने नाम दिये तुमने
हृदय मे धड़कन बहती मिलन की
आंखो मे सपने पलते आस के
तुम को पाने की चाहत मे
मिलोगे कभी व्याकुल रात दिन
जलती बाती सी चैन कहां
मै नीर भरी दुख की बदली
तुम से था दिल का बंधन
जब मन आया खेला तुमने
मन भर गया तो साथी और चुना
तुम ने समझा शतरंज सदा
मेरे लिए सौगात ईशवर की
मै नीर भरी दुख की बदली
सोचा था जीवन धूप, छांव
जीवन में रहेगा साथ तुम्हारा
उम्मीद मे प्रीत मन पलती रही
सांसो मे नाम तुम्हारा
सांझ बन ढलती गयी
अधरों मे है राग ,तेरे मिलन …………।
अस्तित्व अपना समेटती ,तलाशती
सागर की लहरों की तरह
कभी बनाती कभी बिगड़ती रही
मै नीर भरी दुख की बदली।
2- आषाढ़ में सखी
गरज गरज कर बरसे मेघा
पड़ी बुँदे सुबह निखर गयी
सुगन्ध सौधी मिट्टी की,
हवाओं को महका गयी,
फैली मुस्कान पेड़ों पर
बुँदो से नहा ,फूलों की रंगत
निखर निखर गयी
प्यासी धरा में नव प्राण भर गयी
मै भी भीगी बूँदों मे,
मन, तन को शीतल कर गयी
ठंडी पवन मन को भीगो गयी
जल ही जीवन सखी
भरता प्राणों में संचार
सुखी होते जन जीवन
वसुधा होती निहाल
करो यत्न सुरक्षित जल
ना करो जल बर्बाद
जल ना होगा
संकट में होगा जीवन।
3- मै स्त्री
मैं स्त्री हूं ,मैं कठपुतली
मां ,बहन बेटी ,पत्नी
कितने किरदार निभाती हूं
जीवन के रंग मंचके धागों पर
नाचती कठपुतली सी परिवार के रंगों में
कभी अच्छा तो कभी मुसीबत में
नाचती ढाल बन कर
पत्नी बन सेवा करती
पति ही मान परमेश्वर
मन समर्पित तन समर्पित
रहती अटूट विश्वास बन
जो मन से उतरे पति के
कर दे उस का परित्याग
हां मैं स्त्री ,मैं कठपुतली
देना पड़ता प्रमाण अपना
मां बन कर,वंश को बढ़ाना
बेटा हो जिम्मेदारी निभानी है
मैं स्त्री मैं ही कठपुतली
पति बिन नारी जीवन
कहलाता सर्वथा अर्थहीन
ना पहनें मन से ना संवारे तन
मै स्त्री , मै ही कठपुतली
जब रूठ जाती मां लक्ष्मी
तब पड़ते निवाले जुटाने
सब का पालन करना
शुभ ,अशुभ का भार उसी के हाथ
मै स्त्री ,मैं ही कठपुतली
जुड़ी हूं हर किरदार से
कभी मुझे परखा जाता
कभी धागे में बांधी जाती
कभी खींचा कभी छोड़ा
कभी स्नेह कभी अपमानित
इस पुरुष प्रधान समाज में
प्रभु रचना नारी की कर डाली
उसकी वेदना को जान लो
तुम नचाते हो सकल जगत कठपुतली सा,..
इस भेद भाव को हर दो
जो बुन कर भेज दिये तुमने
धागों का यही खेल खेलती
मैं स्त्री, मैं कठपुतली ………..।
4-
“क्योंकि लड़के रोते नही”
हम लड़के
हम भी इस समाज में जीते है
हमारे भी एहसास है
हमें भी दुख होता है
तकलीफ होती है
संवेदनशील हम भी हैं
हमारे दिल भी धड़कता है
हम भी प्रेम की भाषा समझते हैं
तकलीफ में आंखों में होता है नीर
लड़के नहीं रोते ये कैसी धारणा है
बचपन से जवानी तक यही सुना
अपनी भावनाओं को अन्दर दबा
रोते हैं दिल ही दिल में
क्या यही पुरूष होने का प्रमाण है
अन्दर की घुटन बना देती है कितने ही मासुम नोजवानो को
मानसिक रोगी
दुखो को सह जाते हैं
दुख दबाते रह, मिट जाती है उन
की संवेदनशीलता हो जाते हैं कभी कभी कठोर
नही कर पाते इन्सानियत का व्यवहार ……..
मन का दुख नहीं कह पाते,
क्योंकि यही कहां जाता है
लड़के कभी रोते नहीं
घर हो या हो जंग देश की
सभी जिम्मेदारियों को हम निभाते हैं……….।
तुम पुरुष हो, ये कह धैर्य बढाना ठीक…..
देती है हौसला हर जंग ज़ीने की
हम हर संघर्ष से उबर सकते है
हमारी भावनाओं को समझना होगा……
हम भी रोना चाहते है कान्धे पर रख
चाहते है पिता का हाथ फेरना सिर पर
मां की गोद मे सर रख सोना चाहते है…..
अपनी पत्नी के सामने गलती पर झुकना चाहते है
बेटी के संग सहृदय समय बीतना चाहते है
बेटे का मित्र बन उस से खेल में हारना चाहते है
हम इतने कठोर नही जितना
हम लड़को को मुखौटा पहनाया जाता है……
हमारा साथ देना होगा ,
हमें भी दुख मे दुखी हो रोना आता है
हम भी रो ले यही हमारे लिए अच्छा……
घुटन से बचना
ना खो जायेगा बचपनअसमय,
रहेगी मासुमियत
धैर्य, मजबूती से जीवन जी
हम सब जिम्मेदारी बखुबी निभाते रहेंगे………।
कौन कहता है।
क्योंकि लड़के रोते नही।
5-सावन में
ऋतु बदली घुमड़े मेघ,
मदमाती बूंदों की रिमझिम
फुहारों में सरसराता मन मेरा
खिल उठा अनुराग
गाता गुचां गुचां नज्में
सरस धार बन बह निकला
पोर पोर में छिटकी चांदनी
झंकृत मन की डोर आज
तुमने जो बांधा बाहों में
मैं गीली माटी, उतप्त धरा पर
झरझर रहा आह्लादी मन
जीवन में लाया सतरंगी पल।
नाचे मन ठुमक ठुमक
मन में नये पुष्प खिल रहे
जीवन का अनुपम उपहार।
बबिता कंसल, दिल्ली